स्वभाषाओं के बिना शिक्षा नीति अधूरी
उपराष्ट्रपति एम. वेंकैय्या नायडू ने अपने एक लेख में भले ही यह व्यक्त किया है-“हमारे समाज का निर्माण इसी मान्यता के आधार पर हुआ है कि भाषा हमारी संस्कृति की प्राणवायु है, जो सभ्यता को आकार देती है। अध्ययन दर्शाते हैं कि बच्चों को यदि उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाए तो सबसे बेहतर नतीजे हासिल होते हैं। जापान, स्वीडन, चीन और फ्राँस जैसे तमाम देशों में न केवल स्कूली, बल्कि उच्च शिक्षा भी मातृभाषा में मिलती है।यह कहा जाता है मातृभाषा से संवरेगा शिक्षा का स्वरूप ।”
यह कहा जाता है स्वराज्य से सुराज तक, अंधकार से प्रकाश तक राजपथ से जनपथ तक, आन से सम्मान तक जन जीवन का आधार हैं अपनी भाषाएं। यह कथन कहने-सुनने में अच्छा लगता है परंतु जनता के लिए चुनी हुई सरकारों के नीति निर्माताओं की दृष्टि में अहितकर है।
नई शिक्षा नीति को केंद्र सरकार की स्वीकृति मिल चुकी है। उसे क्रियान्वित करने की प्रक्रिया चल रही है। सभी राज्यों की सरकारों और राजनैतिक दलों की व्यापक प्रतिक्रिया सामने आना बाक़ी है। उनके समक्ष अभी आत्म- चिंतन करने का अवसर है। उन्हें विचार करना चाहिए कि देश की प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, जीवन पद्धति, ज्ञान विज्ञान और समृद्ध भाषाओं की विरासत को सुरक्षित और संरक्षित रखने का दायित्व का निर्वाह कैसे होगा ? वे इस ओर ध्यान नहीं देंगे तो, धीरे-धीरे समुचित उपयोग में नहीं आने से विलुप्त हो रही अनेकानेक भाषाओं की तरह अपने देश की भाषाओं का अस्तित्व भविष्य में असुरक्षित हो जाएगा ? अंग्रेज़ी भाषा और अंग्रेज़ीयत देश की युवा पीढ़ी को बहुत कुछ रंग में रंग चुकी है।
स्वाधीनता के तिहोत्तर वर्षों के बाद स्पष्ट देखने में आ रहा है कि युवा पीढ़ी अंग्रेजी भाषा और अंग्रेज़ीयत से इतनी अधिक प्रभावित हो चुकी है कि उसे अपनी भाषाओं में पढ़ने, लिखने और बात करने में असुविधा हो रही है। उनके मन मस्तिष्क में अपनी भाषाओं के अखबार, साहित्य, अध्यात्मिक ग्रंथ और उत्सवों के प्रति जिज्ञासा ही नहीं रही है। उनकी बोलचाल में अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों को प्रयोग बढ़ता जा रहा है। गिनती जैसे सैतीस, छप्पन, बहोत्तर, छियासी से वे अनभिज्ञ हैं। मैकाले तो यही चाहता था कि भारतीय अपनी जड़ों से विमुख हो जाएँ।
मैकाले द्वारा थोपी गई अंग्रेज़ी भाषा और उस भाषा के माध्यम की शिक्षा नीति से नई शिक्षा नीति को अप्रभावित करने का समय आ गया है। उसकी जकड़न की गाँठों को तोड़ कर मुक्ति पाने से ही स्वाधीन राष्ट्र की ताज़ी हवा का रसपान किया जा सकेगा। यह कैसी विडंबना है कि स्वाधीन भारत में गांधी बाबा को मुद्रा पर अंकित कर दिया गया है। सरकारी कार्यालयों और न्यायालयों के कक्षों में उनकी तस्वीर शोभायमान हैं। गांधी जयंती पर उनकों याद करने की रस्म अदायगी हो जाती है। परंतु उस गांधी के विचारों को अपनाने और कर्म में बदलने की ओर ध्यान नहीं दिया जा सका है। गांधी की जन्म शताब्दी को पचास वर्ष निकल गए हैं। उनके भी गांधी के विचारों की सुध नहीं ले पाएं हैं। उनकी डेढ़ सौ वीं जन्म जयंती सामने हैं। पिछले अनुभवों के प्रकाश में उनके विचारों क्रिर्यान्वित करके लाभान्वित हुआ जा सकता है। नई शिक्षा नीति के लिए गांधी के विचार आज भी कितने प्रासंगिक हैं। इस पर विचार तो किया ही जा सकता है। शिक्षा में मातृभाषा, राज्यों की भाषाएं और देश की प्रमुख भाषा हिंदी की उपयोगिता पर गांधी का कहना था “सच्चा शिक्षित तो वही मनुष्य कहा जा सकता है जो अपने शरीर को अपने वश में रख सकता हो और जिसका शरीर अपना सौंपा हुआ काम आसानी और सरलता से कर सकता हो। जो विद्या हमें मुक्ति से दूर भगा ले जाती हो, वह त्याज्य है, राक्षसी है, अधर्म है। देशी भाषा का अनादर राष्ट्रीय अपघात है। माता का दूध पीने से लेकर जो सँस्कार और मधुर शब्दों द्वारा जो शिक्षा मिलती है उसके और पाठशाला की शिक्षा के बीच संगत होना चाहिए। परकीय भाषा से वह श्रंखला टूट जाती है और उस शिक्षा से पुष्ट होकर हम मातृद्रोह करने लग जाते हैं।
नई शिक्षा नीति में मातृभाषा और राज्यों की भाषाओं को अनिवार्य नहीं बनाने की जो गंभीर भूल की जा रही है उसे गांधी के विचारों के आधार पर बिना विलंब किए सुधारना आवश्यक है। सवाल युवा पीढ़ी के भविष्य से जुड़ा है। उसके जीवन के बीस वर्ष के भविष्य को निर्धारित करने जा रही नई शिक्षा नीति में देश की भाषाओं की उपेक्षा नहीं होना चाहिए। गांधी ने पूरे में घुमने के बाद कहा था -” इस विदेशी भाषा के माध्यम ने लड़कों के दिमाग़ को शिथिल कर दिया है और उनकी शक्तियों पर पर अनावश्यक जोर डाला, उन्हें रट्टू और नक़लची बना दिया, मौलिक विचारों और कार्यों के लिए अयोग्य कर दिया। अपनी शिक्षा का सार अपने परिवारवालों तक जनता तक पहुँचाने में असमर्थ बना दिया है। इस विदेशी माध्यम ने हमारे बच्चों को अपने ही घर में पूरा पक्का परदेशी बना दिया है। अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम ने हमारी देशी भाषाओं की बढ़ती को रोक दिया है। यदि मेरे हाथ में मनमानी करने की सत्ता होती तो मैं आज से ही विदेशी भाषा के द्वारा हमारे लड़के और लड़कियों की पढ़ाई बंद कर देता और सारे शिक्षकों और अध्यापकों से यह माध्यम तुरंत बदलवाता या उन्हें बर्खास्त करता। मैं पाठ्य पुस्तकों की तैयारी का इंतज़ार न करता। वे तो परिवर्तन के पीछ-पीछे चली आवेंगी। दुनिया में किसी संस्कृति का भण्डार इतना भरा पूरा नहीं है जितना हमारी संस्कृति का है। हमने उसे जाना नहीं है, हम उसके अध्ययन से दूर रखे ये हैं और उसके गुण को जानने और मानने का मौक़ा हमें नहीं दिया गया है।” “अंग्रेज़ी के मोह से छूटना स्वराज्य का आवश्यक और अनिवार्य तत्त्व है।”
— निर्मल कुमार पाटोदी