कविता

प्रकृति हमारी मां

देख ये
जल-वन ,पवन  पर्वत, वृक्ष
खग वृदं
मन हो जाता प्रफुल्लित
चहक उठता मेरा रोम रोम
ये धरोहर है हमारी
जिस के बिना जीवन असंभव है
प्रकृति हमारी मां है
स्वरूप  प्रभु का
जीवन दायनी मां
कदम कदम पर देती
जीवन जीने मे सहयोग
पर मानव कर बैठा नादानी
जंगल काटे , देते जो प्राणवायु
सागर बांधे ,कर दी गंगा मैली ……
पहाड़ों का किया  दोहन
 बदरा ,चंचला ना हवा के झौकें
 प्रकृति घटकों का संतुलन बिगड़ा
विपदा  से घिरा  झेल रहा
कोरोना  महामारी …..
मानव ठहर, अब भी संभल
बचा ले अपना अस्तित्व
कर पुननिर्माण पर्यावरण का
लगा पेड़,  कर सुरक्षित जल ,वायु , पहाड़ नदी
भौतिकता की ख्वाहिश छोड़
संभाल अपनी धरोहर को
बना रहेगा तेरा अस्तित्व
ना आयेगी विपदा ,ना कांपेगी धरा
ना होगी करोना जैसी महामारी
होगी धरा  खुशहाल ………..।
— बबिता कंसल 

बबीता कंसल

पति -पंकज कंसल निवास स्थान- दिल्ली जन्म स्थान -मुजफ्फर नगर शिक्षा -एम ए-इकनोमिकस एम ए-इतिहास ।(मु०नगर ) प्राथमिक-शिक्षा जानसठ (मु०नगर) प्रकाशित रचनाए -भोपाल लोकजंग मे ,वर्तमान अंकुर मे ,हिन्दी मैट्रो मे ,पत्रिका स्पंन्दन मे और ईपुस्तको मे प्रकाशित ।