कथा साहित्यलघुकथा

ई-संवेदनाएं

मै आज चुपचाप देख रही हूँ, अपनों को, अपनों की प्रतिक्रियाओं को। आज ना मेरे मोबाइल की घंटी नही बज रही है ना ही मेरी डोर बेल, हाँ सुबह से कोई सौ सवा सौ नोटीफिकेसन्स आ चुके हैं, मेरे फेसबुक, ट्वीटर, इन्स्टाग्राम पर भी लगातार कुछ मैसेजेस आ रहे हैं। मेरे आस पास दो चार मानव आकार के लोग दिख तो रहे हैं मगर उनमें से किसी को यह याद नही मुझे इस समय क्या दिया जाना चाहिए? वैसे तो मेरे लिये अब किसी भी चीज का कोई मायने नहीं बचा, मगर फिर भी ना जाने क्यों ये कमबख्त भावनाएं अभी भी मेरा साथ नहीं छोड रहीं। घर के किसी कोने से कोई रोने की आवाज अभी तक नहीं सुनाई दी, हाँ मेरे व्हाट्स एप पर आंसूं की नदियां जरूर बह चुकी हैं, मगर दिल कहाँ ऐसी नदियों से भीगता है। लोग उन लोगों को सांत्वना दे रहे हैं, जिनके लिये ये फालतू से भी ज्यादा फालतू चीज है। मेरी आखिरी फोटो पर अब तक के सबसे ज्यादा लाइक आ चुके हैं, पता नहीं इसे मै अपनी किस्मत समझूं, कि लोग इस वर्चुअल संसार में मुझे इतना प्यार करते थे, या ये समझूं कि मेरा जाना लोगों को इतना पसन्द आ रहा है। मुझे याद आ रहा है वो दिन जब मेरे दादा जी पंचतत्व में लीन हुये थे, ना जाने कहाँ कहाँ से लोग उनके दर्शन के लिये आ रहे थे, जिन्हे पहले कभी नही देखा था, वो भी आज दिख रहे थे, आंखों की नमी स्पष्ट रूप से कह रही थी कि वह कितने ही हदयों में विराजमान थे, कोई उन्हे पिता सदृश्य देख रहा था, तो कोई मित्र, कोई शिष्य समान उनकी चरण रज ले रहा था तो कोई अपने आदर्श का अभिवादन नम अश्रुओं से कर रहा था। मेरा आंगन मेरे आज के घर से भी बडा था, मगर वहाँ भी पैर रखने की जगह न थी, और आज मेरे इस टूबीएच के फ्लैट में आकाश सा विस्तार था, जिसमें आधुनिक सभी सामान मौजूद थे, सिर्फ अभाव था तो उस पिछडे मानव का जो कभी संदेवनाओं से परिपूर्ण था। तभी मेरे सिरहाने पर किसी हाथ की अनुभूति हुई, मुझे आतुरता हुई यह जानने की कि यह कौन मेरा अपना है, जिसे यह पता है कि मुझे इस समय इस अनुभूति की कितनी आवश्यकता थी, नजर उठाकर देखा, मेरे सिरहाने मेरा ही अविष्कृत रोबोट नम आंखे लिये खडा है, उसके दूसरे हाथ में गंगाजल की बोतल है ।वो मौन खडा मुझे बतला रहा है कि तुम्हारा अविष्कार असफल नहीं हुआ, मुझमें वो सभी संवेदनाएं है जो एक पिछडे इन्सान में हुआ करती थी, और जो आज के आधुनिक मानव में लगभग शून्य हो चली हैं। मैने प्रसन्नता से अन्तिम बार आंखें मूंद ली, मन संतोष से परिपूर्ण था कि मैने भावनाओं को संसार से समाप्त नहीं होने दिया, संवेदना विस्थापन के इस अविष्कार के लिये बहुत सम्भव है आने वाले समय में कोई असंवेदनशील व्यक्ति मुझे नोबेल पुरस्कार भी दे ही दे।

डॉ. अपर्णा त्रिपाठी

मैं मोती लाल नेहरू ,नेशनल इंस्टीटयूट आफ टेकनालाजी से कम्प्यूटर साइंस मे शोध कार्य के पश्चात इंजीनियरिंग कालेज में संगणक विज्ञान विभाग में कार्यरत हूँ ।हिन्दी साहित्य पढना और लिखना मेरा शौक है। पिछले कुछ वर्षों में कई संकलनों में रचानायें प्रकाशित हो चुकी हैं, समय समय पर अखबारों में भी प्रकाशन होता रहता है। २०१० से पलाश नाम से ब्लाग लिख रही हूँ प्रकाशित कृतियां : सारांश समय का स्रूजन सागर भार -२, जीवन हस्ताक्षर एवं काव्य सुगन्ध ( सभी साझा संकलन), पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनायें ई.मेल : [email protected] ब्लाग : www.aprnatripathi.blogspot.com