कविता

सवेरा

प्रस्फुटित हो निर्मल आफताब की किरणें
क्षितिज पर डाली है अपना बसेरा
हुई प्रसारित पूरे उर्ध्वलोक को कोंचकर
उठो मनुज हुआ मंजुल सबेरा
सूरज की लालिमा क्षितिज को ले आगोश में
है उभाड़ी अपनी रुचिर आभा
गूंज रही विहंग की मधुर कुंज
मन्द-मन्द दरख़्त के वरक ले रहे स्पंदन
धीरे-धीरे गुलजार होने लगे है मनुज-निकुंज।

— आशुतोष यादव

आशुतोष यादव

बलिया, उत्तर प्रदेश डिप्लोमा (मैकेनिकल इंजीनिरिंग) दिमाग का तराजू भी फेल मार जाता है, जब तनख्वाह से ज्यादा खर्च होने लगता है।