ग़ज़ल
यूँ दफ़अतन तू मुझसे मेरी आरज़ू न पूछ ।
इस दिल की बार बार नई जुस्तुजू न पूछ ।।
हर सिम्त रहजनों की है बस्ती दयार में ।
कब तक बचेगी यार यहाँ आबरू न पूछ ।।
क़ातिल पे रख नज़र को तू खामोशियों के साथ ।
किसने बहाया अम्न का इतना लहू न पूछ।।
गिरगिट की तरह रंग बदलते जो लीडरान।
ऐ ख़ाकसार उनकी कभी सुर्ख़रु न पूछ ।।
मस्ज़िद में आ गए हैं वो इतना तो कम नहीं ।
हैं बे वज़ू या बा वज़ू ये हाल तू न पूछ ।।
रिंदों को मिल रहा है ख़ुदा क्यूँ शराब में ।
ज़ाहिद तू मेरी मैक़दे की गुफ़्तगू न पूछ ।।
पूछा पता सनम का तो उसने ये कह दिया ।
मतलब की बात करले मगर फालतू न पूछ ।।
फैली ख़बर है जब से तेरी आशनाई की ।
कितने जनम लिए हैं हमारे अदू न पूछ ।।
कुछ तो फ़ज़ा के राज़ को पर्दे में रहने दे ।
ख़ुशबू किधर से आती है ये चार सू न पूछ ।।
अल्फ़ाज़ कम पड़ेंगे बयां के लिए मेरे ।
मंजर था कैसा हिज़्र का तू हूबहू न पूछ ।
— डॉ नवीन मणि त्रिपाठी