ग़ज़ल
बहुत बीमार होती जा रही है ।
सियासत ख़्वार होती जा रही है ।।
दिलों के दरमियां कैसे चमन में ।
खड़ी दीवार होती जा रही है ।।
बिका है मीडिया जिस दिन से यारो।
जुबाँ लाचार होती जा रही है ।।
सितम पर आपकी बेशर्म चुप्पी ।
हदों से पार होती जा रही है ।।
करप्शन की तुम्हारी हर कहानी ।
नया अख़बार होती जा रही है ।।
गरीबों के लिए देखो निकम्मी ।
कोई सरकार होती जा रही है ।।
हर इक हालात में क्यूँ जिंदगी की।
डगर दुश्वार होती जा रही है ।।
बही गंगा है उल्टी देश मे क्या ।
जो सच की हार होती जा रही है ।।
बुलन्दी पर है ख़्वाहिश लूट की जो ।
नई मीनार होती जा रही है ।।
— डॉ नवीन मणि त्रिपाठी