बाल कविताबाल साहित्य

बकरापुर की होली

होली के दिन बकरापुर में, शेर घुसे गुर्राते
भाग घरों में दुबके बकरे, अपनी जान बचाते

छूट गये उनके हाथों से गुब्बारे, पिचकारी
पड़ा रंग में भंग, हाय! आयी ये आफत भारी

गली-गली में लगी घूमने शेरों की वह टोली
“कब तक खैर मनाऊँ बेटे!” बकरे की माँ बोली

देख रही थी सबकुछ डाली पर बैठी गौरैया
उसने विनती की शेरों से – मेरे प्यारे भैया

इन बेचारों के उत्सव को शोक बना मत डालो
पशु-पशु भाई-भाई होते, सबको गले लगा लो

शेर ठठाकर हँसा और बोला – गौरैया बहना
डरना हमसे छोड़ सुनो क्या है हम सब का कहना

नहीं किसी को खाने आयी यहाँ हमारी टोली
आज खेलने आये हैं हम तुम सब के संग होली

*कुमार गौरव अजीतेन्दु

शिक्षा - स्नातक, कार्यक्षेत्र - स्वतंत्र लेखन, साहित्य लिखने-पढने में रुचि, एक एकल हाइकु संकलन "मुक्त उड़ान", चार संयुक्त कविता संकलन "पावनी, त्रिसुगंधि, काव्यशाला व काव्यसुगंध" तथा एक संयुक्त लघुकथा संकलन "सृजन सागर" प्रकाशित, इसके अलावा नियमित रूप से विभिन्न प्रिंट और अंतरजाल पत्र-पत्रिकाओंपर रचनाओं का प्रकाशन