कविता

मायड़ भाषा है बहुमूल्य

हाव-भाव संवाद की
रचना
जन-जन की अपनी है भाषा,
सतरंगी परिधान का सपना
आपसी समन्वय की परिभाषा।
मायङ भाषा कभी न भूलो।
इस के अनुभव से तुम अंतर्मन
को छू लो।

शब्दों का पाठ पढ़ा कर के समझ को
विकसित करती है बोली,
भाषा के ही मूल संस्कार बसे हैं
अर्थ ग्रहण से भर देती खुशियों की झोली।
मायङ……………………..…….
इसके……………………..……..

दादी की कहानी व मां की लोरी में
शब्द अर्थ की साम्यता ये बैठाती है,
चले बालपन से जीवन के हर
मुकाम तक
गंभीर रहस्य का मर्म भी ये समझाती है।
मायङ……………………..…..
इसके……………………..……

प्रथम भाषा की कलरव से झलके
श्रेष्ठ संप्रेषण सुधा सी धारा,
कहने सुनने में गुणकारी ये तो
सत्य साधक सी यूँ करे गुजारा ।
मायङ……………………..….
इसके……………………..…..

सलीके से सृष्टि से मिलवा कर
मासूम लबों की मुस्कान बन
जाती है,
लयबद्ध रसपूर्ण वेग ले करके
परिवेश की अमिट पहचान करा
जाती है।
मायङ……………………..
इसके……………………..….

बेशक बहुभाषी बन जाओ तुम
चीजें कपड़े आदि बदलना बन गया
जीवन का किस्सा,
कैसा संकोच हमारी उत्थान वाक् शैली में
क्योंकि पुरातन नींव में आज भी है
हमारा हिस्सा।
मायङ……………………..…….
इसके……………………..……..

पराभाषा को तुम अपना करके
जेंटलमैन बन मूक अभिनय कर जाते हो,
ग्रहणशील निज भाषा स्वरिवार की भूल
हेलो हाय शब्दों के गीत गुनगुनाते हो।
मायङ……………………
इसके…………………….

वतन की सौंधी मिट्टी की खुशबू
सकल विरासत में भी समभाव
दर्शाती है,
फिर भी आधुनिकता की होड़ में
बहुमूल्य भाषा लुप्त होती जाती है।
मायङ……………………..…….
इसके……………………..……..

— शालू मिश्रा नोहर

शालू मिश्रा नोहर

पुत्री श्री विद्याधर मिश्रा लेखिका/अध्यापिका रा.बा.उ.प्रा.वि. गाँव- सराणा, आहोर (जिला-जालोर) मोबाइल- 9024370954 ईमेल - shalumishra6037@gmail.com