कहानी- सांझ-सवेरा
पत्नी इस बात को लेकर बेहद गुस्से में थी कि वो पिछले दो घण्टों से अस्पताल के बाहर खड़ी इन्तजार करती रही, और मुझे उसकी जरा भी परवाह नहीं।
आज पत्नी को डॉक्टर को दिखाने जाना था, जबकि मुझे ऑफिस में भी कुछ काम था। तय ये हुआ था कि पत्नी जब तक डॉक्टर को दिखायेंगी, तब-तक मैं ऑफिस में अपने कुछ जरूरी काम-धाम निबटा लूँगा। डॉक्टर को दिखाने के बाद जब वो मुझे फोन करेंगी, तो मैं ऑफिस से थोड़ी देर की छुट्टी लेकर उन्हें घर छोड़ आऊँगा।
पर हम जैसा सोचें-चाहें, अमूमन वैसा होता ही कहाँ हैं?
डॉक्टर को दिखाने के बाद, पत्नी फोन-पर-फोन किये जा रही थी, जबकि मैं बॉस के साथ एक जरूरी मीटिंग में व्यस्त था। मैंने फोन पर पत्नी की कॉल देखी जरूर थी, परन्तु बीच में मीटिंग छोड़कर आना सम्भव नहीं था। मीटिंग में व्यस्तता का मैसेज भी भेजा, लेकिन लगता है पत्नी ने देखा नहीं था।
खैर…लगभग डेढ़ घण्टे बाद मीटिंग खत्म होते ही मैं स्कूटी लिए जल्दी-जल्दी, चौराहों पर ट्रैफिक -जाम आदि से बचते-बचाते जब अस्पताल गेट पर पहुँचा तो वहाँ पत्नी दुर्वासा बनी खड़ी मिली। मेडिकल-स्टोर से दवा आदि खरीदने के बारे में पूछा, तो इतने गुस्से में थीं कि उन्होंने इस बारे में कुछ भी कहना उचित नहीं समझा।
‘‘घर चलिए।’’ कहते बस चुपचाप मेरे पीछे आकर स्कूटी पर बैठ गयीं। स्कूटी पर सवार हम पति-पत्नी मौन धारण किये घर की ओर बढ़ चले।
अगले चौराहे पर लाल-बत्ती की वजह से ट्रैफिक रूका हुआ था। तभी एक टैम्पो हमारे ठीक बगल आकर रूका, जिसकी पिछली सीट से एक बुजुर्ग सज्जन उतरे और टैम्पो में बैठी एक बुजुर्ग महिला को अपने पर्स से कुछ रूपये निकालकर देते हुए बोले…‘‘तुम ये किराये के रूपये रख लो, पैथालॉजी-लैब में खाली पेट टेस्ट के कारण सुबह से तुमने कुछ खाया-पिया नहीं है। मैं बाजार से तुम्हारी दवाइयाँ लेकर घर पहुँचता हूँ। ये पानी की बोतल भी रख लो। रास्ते में प्यास लगी तो कहाँ खोजोगी? जरूरत हुई तो मैं दूसरी बोतल खरीद लूँगा।’’
‘‘नहीं मुझे प्यास नहीं लगी है, अब तो घर ही जा रही हूँ। इसे आप ही रखिए, खामखाह पैसे क्यों खर्च करेंगे?’’ बुजुर्ग महिला ने उन्हें बोतल वापस करते, मानो फिजूलखर्ची से भी बचने की हिदायत दी।
‘‘अभी कहीं रास्ते में खांसने लगोगी तो पानी कहाँ मिलेगा? इसे तुम ही रखो। मुझे प्यास लगेगी तो दूसरी बोतल खरीद लूँगा।’’ कहते उन बुजुर्गवार ने पानी से आधी भरी वो बोतल बुजुर्ग महिला को वापस करते, चौराहे की तरफ आगे बढ़ गये।
हमने ध्यान दिया कि वो बुजुर्ग सज्जन जब तक चौराहा पार कर सड़क उस पार के मेडिकल-स्टोर में प्रविष्ट नहीं हो गये, टैम्पो में बैठी वो बुजुर्ग महिला, टैम्पो की बायीं तो कभी दायीं खिड़की से झाँकते, उनके ओझल होने तक उन्हें उचक-उचक कर देखती ही रही।
तभी ट्रैफिक-सिग्नल में हरी-बत्ती दिखी। अब उस टैम्पो के पीछे हमारी स्कूटी भी खरामां-खरामां आगे बढ़ने लगी।
‘‘ए जी! यहीं भुट्टे वाले के पास रोकिये?’’ हम अभी थोड़ा ही आगे बढ़े होंगे कि पत्नी ने सड़क किनारे चाय वाले की गुमटी के सामने खड़े एक भुट्टे बेचने वाले ठेले के पास स्कूटी रोकने का इशारा किया।
‘‘क्यों?’’
‘‘मुझे भुट्टा खाना है। भुट्टा खाए बहुत दिन हो गये।’’
‘‘ठीक है। तुम भुट्टा खाओ, तब तक मैं अपने लिए एक स्पेशल चाय बनवाता हूँ।’’ गुमटी के सामने खड़े ग्राहकों को चाय वाले द्वारा चाय परोसते देख मुझे भी कुल्हड़ वाली चाय पीने की तलब हुई।
‘‘मुझे भी ये कुल्हड़ वाली चाय पीनी है।’’ पत्नी ने भी चाय पीने की जिद की।
‘‘और भुट्टा?’’
‘‘पहले हम दोनों एक-एक गरमा-गरम भुट्टा खायेंगे, फिर कुल्हड़ वाली ये गरमा-गरम चाय भी पीयेंगे। कितने दिन हो गये हमें एक साथ सड़क किनारे खडे़-खड़े भुट्टा खाये, ढ़ाबे वाली चाय पिये?’’ मानो पत्नी ने हमारे शुरूआती दिनों को याद करते, एक-तरफा निर्णय सुनाया हो।
‘‘ओ. के. बाबा।’’ थोड़ी देर पहले नाराज पत्नी के बदले हुए इस मूड को देखकर, मैंने भी भुट्टे संग चाय पीने की रजामन्दी दे दी।
‘‘आपने उन बुजुर्ग-दम्पति को देखा? कैसे एक-दूसरे का खयाल रख रहे थे?’’ पत्नी ने भुट्टा खाते-खाते ये अहम् और विचारणीय प्रश्न दागा।
‘‘ओ-हो! तो मैडम के हृदय परिवर्तन की वजह वो बुजुर्ग-दम्पति हैं…हें-हें-हें। शायद…जीवन की सांझ-बेला में एक दूसरे की इसी शिद्दत से जरूरत महसूस होती है।’’ मैंने महसूस किया कि पत्नी का गुस्सा काफी हद तक काफूर हो चला था।
‘‘पर आप तो मेरी जरा भी परवाह नहीं करते? इतने दिनों से डॉक्टर को दिखाने के लिए कह रही थी। आज बड़ी मुश्किल से तैयार भी हुए, तो मेरे साथ अस्पताल जाने का भी टाइम नहीं था आपके पास? हर वक्त काम-काम। पता नहीं कैसे निभेगा हमारा साथ?’’
‘‘यूँ ही रूठते-मनाते। वैसे भी अभी हमारी सांझ की नहीं, दुनियावी झंझावात से जूझते, सुबह की बेला चल रही है…हें-हें-हें।’’
‘‘आप ही तो गुस्सा दिलाते हैं मुझे, समझे कि नहीं? हाँ नहीं तो?’’
‘‘तुम भी तो बात-बात में रूठ जाती हो, समझी कि नहीं? हाँ नहीं तो? हें-हें-हें।’’
भुट्टा खत्म हो चुका था। अब हम कुल्हड़ वाली चाय पीने, उस गुमटी की ओर बढ़ गया।
— राम नगीना मौर्य