सामाजिक

दिल्ली दंगा

पिछले दिनों भारत की राजधानी दिल्ली के कुछ हिस्से धूँ-धूँ करके जलने लगे। चारों ओर उठता धुआँ, मासूमों की चीख-पुकार, अपने घर में क़ैद हो जाना, बाहर निकलते हुए काँप जाना। चारों ओर से गोली-बम की आवाज़ और चीखें धड़कनें बढ़ा रहीं थीँ।

कुछ तो अपनी जान बचाने की ख़ातिर नाले के नीचे ही जाकर छिप गए थे। कुछ ने परिवार बचाने की ख़ातिर अपना आशियाना अपनी आँखों से लुटते देखा। कुछ ने दंगाईयों के पैर पकड़कर, भीख माँगकर अपनी जान बचाई। अपनी शादी में ही दूल्हा-दुल्हन बना दिए गए स्वर्गवासी। दंगाईयों ने मासूमों को भी नहीं बख्शा, स्कूलों को भी अपना निशाना बना दिया। दहशत भरे माहौल में परीक्षार्थियों ने दी परीक्षा।

गरीब की रोज़ी-रोटी का साधन रिक्शा, ऑटो रिक्शा सभी दंगे की गिरफ़्त में आ गए थे। बस, स्कूटर, कार जो भी दंगाईयों के रास्ते में आ जाता वे उन्हें अपनी आगे बढ़ने की सीढ़ी बना देते। घरों में तोड़फोड़, आगज़नी, लूटपाट और न जाने कितना भयंकर तूफ़ान मचा था, जो बताते हुए भी कंपकंपी छूट रही है।

कुछ पुलिसकर्मी भी इस दंगे में शहीद हुए जिन्हें हम भारतीय नागरिक सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। हर क्षेत्र में कुछ सच्चे देशभक्त देखे जा सकते हैं, ये उनमें से ही हैं। कर्फ़्यू लगाने के बाद स्थिति क़ाबू में आई,  तब कहीं जाकर साँस में साँस आई। हालातों पर क़ाबू पाया गया। काफ़ी दिनों तक बाहर जाते हुए डर लगता था कि कहीं फिर से उपद्रव न शुरू हो जाए।

एक बात और मेरे ज़हन में घूम रही है! यह वाक़या उस समय हुआ जब भारत में वो भी दिल्ली में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप आए हुए थे। फिर सब शांत हो गया। यह सब सिर्फ़ दिल्ली में ही क्यों हुआ और कहीं पर क्यों नहीं? दिल्ली की जनता सरकार से बस एक सवाल ही पूछ रही है? इन सियासी दलों में हमें क्यों बलि का बकरा बनाया गया?

— नूतन गर्ग (दिल्ली)

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक