गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

जो वाकिफ़ ख़ुद को अपनी ज़ौ-फ़िशानी से नहीं रखता
त’अल्लुक  वो  ही  बेहतर   ज़िंदगानी  से  नहीं  रखता
जिसे   मालूम  है  ये  ख़ल्क़   फ़ानी   है  वही  मतलब
जहाँ  में  रह  के  भी  दुनिया-ए-फ़ानी  से  नहीं  रखता
बहुत  माहिर है  लफ्फ़ाज़ी में  उसका  झूठ भी  सच है
ग़लत   बातें   कभी   वो  बदज़बानी   से  नहीं   रखता
सियासी   ताश   में   माहिर  वो   पत्ते   बाँटता   है  यूँ
हुकुम का  इक्का  रखता है जो  ख़ुद रानी नहीं रखता
बिना  जिसके  ये  मेरी  ज़िंदगी  ही  ना – मुकम्मल है
कोई   नाता   वही    मेरी    कहानी   से   नहीं  रखता
कलंदर – सा मेरा  किरदार  इक रब के  अलावा अब
तवक़्क़ो   इस  जहाँ  की   मेहरबानी  से  नहीं  रखता
हक़ीक़त  की  ज़मीं  पर  चल  सकूँ  है  ‘आरज़ू’  मेरी
मेरा  दिल   ख़्वाब  कोई  आसमानी  से  नहीं  रखता

— अंजुमन ‘आरज़ू’

अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'

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