कहानी

छोटे भाई की भावना

मनोरमा:-“देवरजी, पिछले दस साल से आपके बड़े भाई आप की दुकान का उपयोग कर रहे हैं।आपने कभी भी किराए की बात नहीं की।लेकिन आपकी शादी हुए पांच साल हुएं हैं तभी से आपने किराया मांगना शुरू कर दिया। शादी के बाद आप काफी बदल चुके हैं।”

मनोज:-“देखिए भाभी, पहले बड़े भैयाने जब नवल सिंह की दुकान किराए पर रखी थी तभी मुझे पता था कि एक-ना-एक दिन उस दुकान की बिक्री हो जाने वाली है और बड़े भैया को दुकान खाली करनी होगी। इसलिए दूरदर्शी बनकर मैंने बैंक से लोन लेकर उस दुकान को खरीद लिया था। लोन के पूरे रुपए भी मैंने बैंक को ब्याज सहित चूका दिए हैं। मैंने बड़े भाई से कभी भी एक रूपए की मांग भी नहीं की।”
मनहर:-“मनोज, तुम्हें मेरी परिस्थिति का भी ख्याल करना चाहिए। दोनों बच्चे बड़े हो गएं हैं। घर खर्च के साथ पढ़ाई का भी काफी खर्चा होता है। शादी से पहले हमने तुम्हारा कितना ख्याल रखा था यह तुम सब कुछ भूल गए।”
मनोरमा:-“यह सब कुछ मेरी देवरानी ने किया कराया नाटक है। उसने ही आपको किराया मांगने के लिए चढ़ाया है वरना आपने तो पहले पांच साल तक किराया नहीं मांगा।”
मनोज:-“जरा सोचिए,दस साल पहले मैंने दुकान किसी और को किराए पर दे दी होती तो आज मेरे पास कितने रुपए जमा हो गए होते। लेकिन मुझे पता था कि आपको एक दिन किराए की दुकान खाली करनी होगी और मेरी दुकान की जरूरत पड़ेगी।और भाई साहब, आपके खर्चे भी जालिम है। होटलों में खाने-पीने,घूमने-फिरने और कपड़े-लते के पीछे आप खर्च करने में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते। और दुकान का महीने का पंद्रह सौ रूपए का किराया आपको भारी पड़ता है? महीने के तीन हज़ार देते तो भी इतनी बड़ी दुकान आपको कहीं भी नहीं मिलती।
दुकान आपके लिए पांच साल तक मैंने खाली रखी। सिर्फ आपके लिए। आपने मेरी भावना की क्या कदर की?”
मनोरमा:-“आप भी पुराने दिनों को भूल गए। हमने आपका कितना ख्याल रखा था। जरा अपनी घरवाली को तो जाकर बताओ। बड़ी होशियार बनी फिरती है।”
मनोज:-“आप ममता को बीच में मत लाइए। भगवान की कसम खाकर कहता हूं कि आज तक मैंने अपनी धर्मपत्नी होने के बावजूद उसे यह नहीं बताया कि मैं इस दुकान का मालिक हूं। आज भी वह इस बात से अनभिज्ञ है।”
मनोरमा:-“अरे!जाओ जी, मैं इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हूं।”
मनोज:-“क्या ममता ने कभी दुकान के बारे में आपको कुछ पूछा? क्या ममता ने इसके बारे में आपको कभी खरा-खोटा सुनाया? क्या ममता ने कभी परिवार के बीच दुकान को लेकर आपको ताने सुनाएं? उस बेचारी निर्दोष को क्यों बीच में घसीटते हो?”
मनोरमा:-“यह उसी की साजिश है।”
मनोज:-(आंखों में आंसू के साथ)”भाभी,आप झूठा आरोप लगा रही है। मुझे दुकान के किराए की कोई नहीं पड़ी है। मुझे दु:ख इस बात का है कि आप मेरी भावना को समझ नहीं पाएं। लेकिन अब आगे बहस करने से कोई फायदा नहीं है। यदि जाने-अनजाने में मुझसे या ममता से कोई गलती हो गई हो तो क्षमा प्रार्थी हूं। बस इतना कहना चाहता हूं की दुकान के किराए को लेकर हमारे संबंधों पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए।मैं जा रहा हूं।”
इतने में दरवाजे की घंटी बजी। मनोरमा ने दरवाजा खोला तो सामने एक आदमी खड़ा था। मनोरमा ने पूछा:-“जी बताइए,आप कौन हैं? उस आदमी ने बताया:-“मेरा नाम मयूर पंड्या है। शहर के बीचोबीच आजाद चौक में मेरा ऑफिस है। मैं सरकार मान्य पोस्ट एजेंट हूं।”
मनोहर:-“आप हमारे यहां किस काम के लिए आए हैं?”
मयूर:-“जी, पांच साल पहले अंजलि मनोहर त्रिवेदी के नाम का पोस्ट में हर माह का पंद्रह सो रुपए का रिकरिंग खाता खोला गया था। खाते की अवधि पूरी हो गई है। खाते में भरे हुए पैसे ब्याज के साथ आपको वापस मिलेंगे इसकी जानकारी देने हेतु आया हूं।”
मनोहर:-“लेकिन हमने अपनी बेटी अंजलि के नाम का ऐसा कोई खाता नहीं खुलवाया। आपके पास हर महीने रूपएं जमा करने के लिए कौन आता था?”
मयूर:-“वही मनोज भाई त्रिवेदी जो स्कूल में टीचर है और उन्होंने खातेदार का पता यही लिखा है। उन्होंने जब खाता खुलवाया तब बताया था कि यह खाता उनकी भतीजी के नाम का है और पांच साल के बाद वह बड़ी हो जाएगी तब उसकी पढ़ाई के खर्चे में यह पैसे काम आएंगे। अब आपको अंजलि के नाम का पोस्ट में या बैंक में अकाउंट खोलना पड़ेगा ताकि यह पैसे उसके खाते में जमा हो सके।”
मनोहर:-(मयूर की बात सुनकर आंखों में आंसू के साथ)”मनोरमा, आज हमने बिना सोचे समझे जल्दबाजी करके मनोज की भावना के साथ बड़ा खिलवाड़ किया है। हमने मनोज को समझने में बड़ी गलती की है। अब मैं छोटे को क्या मुंह दिखाऊंगा? मैंने उसके दिल को ठेस पहुंचाई है। मैं उसका अपराधी हूं।हम दोनों भाई के बीच मनमुटाव…….।”
मनोरमा:-(आंखों में आंसू के साथ लज्जा से सिर झुका हुआ) “मैं स्वीकार करती हूं कि गलती आपकी नहीं सिर्फ मेरी है।मैं छोटे भाई की भावना को समझ नहीं पाई।आपके मन में भी उसके प्रति नफ़रत पैदा कर दी।” इतना बोल कर मनोरमा फूट-फूट कर रोने लगी। मनोहर भी अपने आंसुओं को रोक नहीं पाया। दोनों मनोज के प्रति कृतज्ञभाव से भर गएं।
— समीर उपाध्याय

समीर उपाध्याय

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