सिर्फ अपना ही क्यों ?
ज़िंदगी की भागदौड़ में हम सभी इतना भाग रहे हैं कि पीछे मुड़ने तक का वक्त नहीं है | जागते हुए सो रहे हैं और सोते हुए जाग रहे हैं ! जब भी हम किसी विषय के बारे में अपना दृष्टिकोण रखते हैं तो तुलनात्मक अध्ययन द्वारा ही कल-आज और कल में हुए, हो रहे और होने वाले सुखद-दुखद परिणामों को ही आधार बनाते हैं |
विज्ञान हो, इतिहास हो या जीवन से जुड़ा कोई भी विषय हो हम आंकलन करते ही हैं, फिर आज डूब रही सभ्यता और संस्कार का आंकलन हम क्यों नहीं करना चाहते, अपने परंपरागत सद्दव्यवहारों से ? क्यों हम इन जीवन मूल्यों को सींच नहीं पा रहे आज की पीढ़ी में ? तरक्की कर रहा है मनुष्य किन्तु, तरक्की के साथ भीतर-ही-भीतर खुद में संकुचित सा, अकेला सा, अपनों को पीछे छोड़ सिर्फ अपने आप का हो जाना क्या सही है, उसके खुद के लिए और उससे जुड़े अहम रिश्तों, परिवार, समाज और देश के लिए ? जब हम एक परिवार में रहकर, अपनों में रहकर भी अपनी-अपनी गाड़ी हाँकते हैं तब सीना फट जाता है उस घर की धरा का !
दिखता नहीं है वो एक अलग बात है, पर महसूस होता है, कि अपनत्व बिक गया है स्वार्थ के हाथों !
ऐसा नहीं कि प्रत्येक परिवार इसका हिस्सा बना है | आज भी जिन घरों में बच्चे अपने दादा-दादी, नाना-नानी, के साथ रहते हैं या कि शहरों में रहते हुए भी माता-पिता सुअवसरों पर बच्चों को उनके बड़े परिवारजनों से मिलवाने गाँव लेकर जाते हैं, तीज-त्योहारों को घर के बड़ों के साथ मिलकर मनाते हैं और एक महत्त्वपूर्ण बात कि बच्चों के समक्ष अपने से बड़ों के हृदय और मुस्कान को आदर सूचक स्नेहिल शब्दावली में सींचते हैं, ठीक वैसा ही प्रभाव हमें अपनी अगली पीढ़ी में दिखाई देता है |
कई ऐसे युवा जो बरसों तक उच्च शिक्षा के लिए, नौकरियों के लिए शहरों में आए और आगे-आगे बढ़ने की चाह में, निरंतर ऊंचाइयों को पाने की होड़ में इतना आगे बढ़ गए कि अपने आधार को भूल, बूढ़ी आँखों की प्रतीक्षा को भूल, अपनी मर्ज़ी से बनाई अपनी एक नई दुनिया में बस गए, बिसर गए सब आशीर्वाद, दुआएँ जो बिना किसी चाह के तुम्हारी झोली में आज भी डाल दी जाती हैं | फोन पर की गई तुम्हारी आधी सी बात में भी आँसुओं से भीगी रूह से ये शब्द सुनाई देते हैं– “जीते रहो बेटा, खुश रहो, बाल-बच्चों को स्नेह देना और जल्दी फोन करना |”
अपने भीतर तो अनुभव करो कि क्या मिलता है तुम्हें अंत में सिर्फ अपना-अपना सोचकर ! आजतक पढ़ी कहानियों में ज़रा सा भी सार नहीं सीख पाया क्या ? अनुभव भी हुए होंगे कड़वे ज़िंदगी में फिर भी नहीं सीखा ! तो फिर क्या फ़ायदा ऐसी तरक्की, ऐसी सुख-सुविधाओं का जो कितना भी कमाकर जोड़ लो साथ नहीं जाने वाली ! इसलिए इतना तेज़ मत दौड़ो कि ठोकर लगे तो संभालने के लिए कोई भी हाथ न हो | सिर्फ अपने लिए नहीं अपनों के लिए जीकर तो देखो, यही आचरण अपना, अपनों का और सबका हित करता है |
तरक्की के साथ-साथ एक स्वस्थ विचारधारा जब जन्म लेती है, तो एक परिवार का नहीं बल्कि पूरे समाज का भला होता है |
— भावना अरोड़ा ‘मिलन’