सीढ़ी पर चढ़कर
ढूंढ़ता हूँ
बादलों में छुपे चाँद को
पकड़ना चाहता हूँ
चंदा मामा को
बचपन में दिलों दिमाग में समाया था।
लोरियों, कहानियों में रचा बसा था
माँ से पूछा की चंदा मामा
अपने घर कब आएंगे
ये तो बस तारों के संग ही रहते
ये स्कूल भी जाते या नहीं
अमावस्या को इनके स्कूल की
छुट्टी होती होगी।
तभी तो ये दिखते नहीं
माँ ने आज खीर बनाई
मामा को खीर खाने बुलाने के लिए
सीढ़ियों पर चढ़ कर देखा
मामा का घर तो बहुत दूर है।
माँ सच कहती थी
चंदा मामा दूर के पोहे पकाए …..
मैं बड़ा हो के विमान से जाऊंगा
तब माँ के हाथों की बनी
खीर का न्योता अवश्य दूंगा।
— संजय वर्मा ‘दृष्टि’