लघुकथा – फूलन देवी
ट्रेन सरपट दौड़ी जा रही थी । सामने वाली सीट पर भरे हुए बदन की एक उदास औरत बैठी थी । उसका दो साल का नटखट लड़का पूरी बोगी में धमाल मचाए हुए था । प्रणव उस औरत के गठे हुए बदन की ओर आकर्षित हुआ तो दिखावटी प्रेम से उसके लड़के से खेलने लगा । लड़का भी बड़ा क्यूट था ।
प्रणव ने कई बार कोशिश की औरत से बात करने की पर बात बनी नहीं । देखने में वह विधवा लग रही थी । उसकी माॅंग बिना सिंदूर के सुनी थी, माथे पर कोई बिंदी नहीं थी । कोई सिंगार नहीं फिर भी उसकी सुंदरता गजब ढा रही थी । बोगी का हर पुरुष ललचाई नजरों से उसे काट खाने को उतारू था ।
प्रणव ने आखिरी दाव चलाया, अपने बैग से बिस्किट का पैकेट निकाल कर खाने लगा । बिस्किट देख लड़का हंसता- खिलखिलाता प्रणव के पास आ गया । प्रणव भी तो यही चाहता था, उसने पैकेट औरत की तरफ आगे बढ़ाते हुए कहा –
‘लीजिए…. खिला दीजिए… बच्चा भूखा होगा ।’
औरत ने बगैर ना नुकुर के पैकेट हाथ में ले लिया । प्रणव को लगा कि अब बस मछली कांटे में फस गई । बातचीत प्रारंभ हो चुकी थी और बातचीत का सिलसिला चल निकला । बातों ही बातों में पता चला कि औरत दिल्ली जा रही है अपने पति से मिलने, तिहाड़ जेल !
तिहाड़ जेल का नाम सुनते ही प्रणव की आशिकी का भूत उतर गया । वह सामान्य होकर बतियाने लगा । आगे औरत ने सच्चाई बताई कि वह अपने पति के साथ मिलकर एक ढाबा चलाती थी । एक रात तीन शराबी खाना खाने आये । उनकी नियत बिगड़ गई । मैंने सब्जी काटने वाले हंसिये (गंडासा) से तीनों को काट दिया । मेरे उसी जुर्म को मेरे पति ने अपने सिर ले लिया ।
अगले स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो प्रणव फीकी सी मुस्कान के साथ फूलन देवी को नमस्ते करता हुआ उतर गया ।
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा