कहानी

कहानी – कसरत वाला भगोड़ा

आज फिर बुधिया चार बजे भोर भादो को ढूंढने निकल पड़ी थी । मैं जान बूझ कर उसके रास्ते से हट गया और पेड़ के पीछे छिप कर उसे जाते हुए देखता रहा-दूर तक । डूबती चांद की ओड में वह लम्बे लम्बे डेग डालती लपलपाती हुई जा रही थी । यहां कृष्ण राधा मिलन जैसी कोई बात नहीं थी । बस एक क़रार था, एक दरकार थी ! जिसके लिए वह भागी जा रही थी ..!
हां, बुधिया ने मुझे देखा नहीं था, लेकिन उसे पता था कि मैं यहीं हूं, यहीं कहीं छिपा हुआ हूं । और छिप कर उसे जाते हुए देख रहा हूं । इसका सबसे बड़ा प्रमाण वो दो घंटियां थी जो सड़क किनारे की टुंगरी (एक छोटी मोटी पहाड़ी) पर चर रही मेरी दोनों लघेर गायों के गले में बंधी हुई थी । घंटियों की आवाज उन दोनों गायों की पहचान थी और वे दोनों मेरी गायें हैं और मैं उनका चरवाहा हूं यह मेरी पहचान थी । घंटियों की आवाज दूर तक सुनाई पड़ती थी और लोग जान जाते थे कि यह उन्हीं के गायों की घंटियां है और मैं यहीं कहीं बैठा हूं या फिर सड़क किनारे घास पर उठक – बैठक कर रहा हूं । व्यायाम करने का मेरा बचपन की आदत अभी तक छुट्टी नहीं थी । सुबह सुबह टांड पर उठक बैठक करते हुए बुधिया बींसो बार मुझे देख चुकी थी- सामने से नहीं । पेड़ों या फिर झाड़ियों के पीछे छिप छिप कर ! चोरी-चोरी !
वही बुधिया इधर मेरे मन को भी ललचाने का कई असफल प्रयास भी कर चुकी थी लेकिन मैं सिम दाल की तरह कभी उसके आगे गला नहीं -सिझा नहीं । उसका कोई भी शस्त्र मुझ पर आज तक काम न आ सका था । परन्तु उसने भी अभी हार नहीं मानी थी । न मैदान छोड़ी थी, बस समय की ताक में थी, समय सबका आता है, शायद उसके मन में कभी कभी यह ख्याल आता होगा , कब मौका मिले और लपक लूं । परन्तु वो समय अभी आया नहीं था ।
हर दिन मैं चार बजे भोर गायों को चराने के लिए उस टुंगरी पर आता हूं, जब से उसने यह जाना था तभी से वह देह धोकर मेरे पीछे पड़ी हुई थी ।
तीस वर्षीय बुधिया सुकरा मुंडा की बड़ी पुतोहू थी और दारू की आड़ में देह व्यापार भी करती थी । घर में यह बात सभी को पता था लेकिन बुधिया के आगे किसी का मुंह नहीं खुलता था ‌। पति बेवड़ा था, दारू पीकर सूअर की तरह जहां तहां पडल रहता था और कुत्ते उसका मुंह चाटते रहते थे । एक बार बूढ़े ससुर ने जुर्रत कर बैठा था-” जो तुम कर रही हो यह ग़लत है,लोग नाम लेकर मुझे गारी देते हैं..!”
” अच्छा, बेटे से काहे नहीं काम करने को कहता, मरद कमाता नहीं, दारू पीकर दिन भर कहां मरल पडल रहता है, मैं भी नहीं कमाऊंगी तो घर का नून- तेल, आटा-दाल कौन लाकर देगा ? है कोई मरद..?” बुधिया चीख पड़ी थी, उसकी से बगल में बंधी बकरी भी जोर से मिमिया उठी-थी -” लो इसका भी पेट मुझे ही भरना है, एक छगरी का पेट भी तुम लोगों से भरा नहीं जाता है- बात करेगा इज्ज़तदारों वाली ! और तुम तो चुप ही रहो” बुधिया ससुर पर गुर्राई थी” याद है, एक दिन ख़ाने को नहीं मिला तो गांव में चार -चार जगह फोंकर दिया” पुतोहू खाना नहीं देती है,पुतोहू पीने नहीं देती है और बात करेगा हमसे इज्ज़त बिज्जत की ..!”
बूढ़े ससुर की सिटी पिटी गुम ! उस दिन के बाद फिर कभी वह मुंह फाड़ न सका । कभी बोली न निकली उसके मुख से ! तब से बुधिया अपने घर की रानी-महारानी थी । घर और बाहर उसी की मर्जी चलती । जो घर में आता, उससे घर में मिलती बाहर तो बहुतों को न्योत रखी थी उसने ।
” मैं किसी का गुलाम नहीं हूं..!” घर में वह किसी के सामने हुमच कर बोल उठती थी । उपदेशक लोग भी उससे मुंह लगाने से घबराते थे, जाने कब क्या कुछ बक दे छिन्नार !
बुधिया से मेरी पहली मुलाकात भूत-भूतनी की तरह हुआ था । आषाढ़ का महीना था । भोर-भोर की बेला थी । टुंगरी का तलहटी था, मैं था,मेरी दो लघेर गायें थी । हवा में ताजगी थी और उसमें प्रकृति की गंध घुली मिली हुई थी । टुंगरी पर मेरी गायें चरने में तल्लीन थीं और मैं टुंगरी की तलहटी और पक्की सड़क किनारे घास पर गमछा डाल योगा में लीन था । अलोम विलोम करते हुए लम्बी लम्बी सांसें ले रहा था कि तभी अचानक से मेरे कानों में दौड़ते हुए पदचाप सुनाई पड़े । मैं चौंकते हुए उधर देखने लगा फिर योगा छोड़ बदन पर गमछा लपेट सड़क पर आ गया था । इतने में दौड़ते भागते हुए एक औरत नहीं-नहीं एक जवान औरत ठीक मेरे सामने आकर रूकी ” ब्रेक ! ब्रेक !..!” कह मैंने दोनों हाथ खड़े कर उसे रूकने को कहा था । वह ठिठकते ठिठकते रूक गई थी। वह ऐसे भागते-दौड़ते चली आ रही थी, उसके पीछे कोई भूत पड़ा हो जैसे । या फिर कोई उसे दौड़ा रहा हो । वह हांफ रही थी और लम्बी लम्बी सांसें ले रही थी…!
” तुम कौन हो, और इस तरह भाग क्यों रही हो ? कोई सांड – भांड पीछे पड़ा हुआ है क्या..?”
” मेरा नाम बुधिया है, मैं चोटाही के बुधना मुंडा की पत्नी हूं ..!” उसका हांफना अभी तक बंद नहीं हुआ था । वह बिल्कुल मेरे सामने खड़ी थी । उसकी सांसें तक मुझे सुनाई पड़ रही थी ” फिर इस तरह भाग क्यों रही थी..?”
” मैं..मै भादो के पास जा रही थी, सुबह खेत का धान बिहिन गाडी जोतवाना है, वही कहने जा रही थी..!”
” भादो,..भादो दा..!” कुछ सोचते हुए मैंने कहा ” वो तो उधर काडा चराने ले गया है,..जाओ..जाओ, जल्दी जाओ..!”
जाने से पहले उसने मुझे एक बार भरपूर नज़रों से देखी और तेजी से उस दिशा में बढ़ गई थी, कुछ देर पहले ही भादो दा उधर काडा लेकर गया था ।
तब से लेकर आज तक भादो दा ही बुधिया के खेतों की जोतवारी करने वाला जोतवाहा-हरवाहा बना हुआ था। बुधिया भी तो एक खेत ही थी । बाद में बुधिया ने जोतवाहे के रूप में बोधि और शनिचर को भी शामिल कर ली थी ।
बुधिया के वही हरवाहा-जोतवाहा भादो दा ने आज उसे बहुत निराश किया,छला , धोखा दिया,कह कर भी मिलने नहीं आया था ।
उसके गये अभी मुश्किल से आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि झुलसे मन बुधिया को लौटते देखा । मेरी गायें टुंगरी पर चर रही थीं और मैं सड़क किनारे खड़ा राजभाषा विभाग के निदेशक को वाटशप पर उनके भेजे ” मैसेज ” के जवाब में ” सुप्रभात ” लिख रहा था । तभी बुधिया मेरे बिल्कुल पास आकर खड़ी हो गई- ढीठ भी तो बड़ी थी ! जिसके साथ हम विस्तर होती होगी, जाने उसके साथ किस तरह पेश आती होगी ! कमोवेश खरगोश का जीवन जीती हैं, ऐसी औरतें !
” आज बड़ी जल्दी लौट आई,भादो दा नहीं मिला क्या..?” पूछ बैठा था ।
” उस बहिनमौगा को आज उसकी मौगी पकड़ रखी थी, मुझे आने को बोल रखा था और पंठवा खुद नहीं आया..!” बुधिया बेहद गुस्से में लगी ।
” उधर बोधि भी तो काडा चरा रहा था, उसके पास चली जाती..!”
” कल तो उसी के पास गयी थी, रोज रोज थोड़े न देगा”
” फिर शनिचर को बोलती,वह भी तो उसी के साथ काडा चरा रहा था ।”
” वो बड़ी हरामी है, कमर में जोर तो है,पर बहुत तंग भी करता है और पॉकिट खाली रखता है, मुफ़्त में माल मारना चाहता है,फोकट में कितनी बांटती फिरूंगी, फिरी में नून-तेल कौन लाकर देगा मुझे..?”
” हां,वो तो है…!”
इसके साथ ही रहस्यमय ढंग से मैंने चुपी ओढ़ ली थी,उस वक्त बुधिया को अपने पास से ठेलने का एक मात्र रास्ता यही सही लगा था । परन्तु बुधिया के दिमाग को समझना इतना आसान भी नहीं था । कहा भी जाता है ,स्त्रियों को जब ईश्वर नहीं समझ सके तो मनुष्य की औकात ही क्या है ! पास में ऐसे खड़ी थी जैसे आगोश में लेने की तैयारी कर रही हो, उसके पास से चुपचाप खिसक लूं, मैं अभी इसी पर सोच रहा था कि उसकी बातों ने चौंकाया मुझे-
” बहुत दिनों से आपको कसरत करते, दण्ड उठक बैठक करते देखते आ रही हूं, कभी इसका फायदा मुझे भी दे दो,आज तक कभी दिया नहीं, मैंने कभी मांगा भी नहीं, घर में नून – तेल, आटा-दाल खत्म है, आज तो बोहनी कर दो.साहब..!”
” साहब !” यह ऐसा शब्द बम ! था जिसने मुझे एक पल के लिए असहज कर दिया था । लगा मैं और कुछ देर तक इसके पास रहा तो मुझे अपनी वजूद बचा पाना मुश्किल हो जाएगा । अफवाहें आग की तरह होती है,फैलते देर नहीं लगती है । बुधिया का जल्दी में लौटना और मेरे पास आकर उसका खड़ी हो जाना, तभी मुझे समझ जाना चाहिए था कि आज यह जरूर कोई धमाका करेगी,मैं देर तक उसे देखता रहा और वह प्रार्थना की मुद्रा में आंख बंद किए खड़ी रही कि मैं ” हां ” कर दूं और उसकी आज की बोहनी हो जाए !
सूर्योदय होने में अभी भी काफी वक्त था । लोगों की आवा- जाही अभी शुरू नहीं हुआ था । दाग लगने के पहले देह बचा लेने में ही बुद्धिमानी थी-
” देखो, अभी तुम जाओ,मेरी दोनों गायें दिख नहीं रही है और घंटियों की आवाज भी सुनाई नहीं पड़ रही है, शायद खेतों की ओर उतर गई है, मुझे जाना होगा..!”
इसी के साथ मैं कदम उठा कर कुछ इस तरह भाग खड़ा हुआ था जैसे शिकारी को सामने पाकर खरगोश भागता है ।
तभी भागते कानों से एक आवाज टकराई” कसरत वाला भगोड़ा..!”

— श्यामल बिहारी महतो

*श्यामल बिहारी महतो

जन्म: पन्द्रह फरवरी उन्नीस सौ उन्हतर मुंगो ग्राम में बोकारो जिला झारखंड में शिक्षा:स्नातक प्रकाशन: बहेलियों के बीच कहानी संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तथा अन्य दो कहानी संग्रह बिजनेस और लतखोर प्रकाशित और कोयला का फूल उपन्यास प्रकाशित पांचवीं प्रेस में संप्रति: तारमी कोलियरी सीसीएल में कार्मिक विभाग में वरीय लिपिक स्पेशल ग्रेड पद पर कार्यरत और मजदूर यूनियन में सक्रिय