कविता

मैं बन का फूल नहीं


मैं बन का फूल नहीं,
जो खिला कोई देखा ही नहीं।
मैं बाग का वो फूल हूँ,
जिसपर नजर जहाँ की परी।

ये जिन्दगी सिर्फ अपने लिए,
हमको तो जीना है नहीं।
मैं सूर्य नहीं दीपक सही,
अँधेरे से मेरा नाता नहीं।

इस जन्म का कुछ अर्थ है,
मुझे इसे व्यर्थ गवाना है नहीं।
जब तक रगों में खून है,
कभी बैठे हमें रहना नहीं।

मैं कांटा नहीं वो गुलाब हूँ,
जो महक छोर सकता नहीं।
मैं बन का फूल नहीं,
जो खिला कोई देखा ही नहीं।

अमरेन्द्र
पचरुखिया,फतुहा,पटना,बिहार।
(स्वरचित एवं मौलिक)

अमरेन्द्र कुमार

पता:-पचरुखिया, फतुहा, पटना, बिहार मो. :-9263582278