उड़ान
कैसे तोड़ दु सपनों के जहान को
बिना परो के कैसे ऊँचा करूं उडान को |
मुठ्ठी में कैसे थाम कर रखूं इस वक्त के रेत को
हरा-भरा कैसे करूं फिर बंजर खेत को |
पैर जमीन पर रख कैसे सर लगाऊ आसमान को
बिना परो के कैसे ऊँचा करू उडान को |
बड़ी रात फिर भी अधूरी नींद हैं , कई ख्वाब आधे हैं
कुछ घर वालो के सपने, कुछ खुद से किये वादे हैं |
गिरा हूँ कई बार चढ़ते -चढ़ते मंजिल की राहों में
यू ही नहीं इतने मजबूत मेरे इरादे हैं |
जिंदगी की असलियत तो मौत हैं,
जाते – जाते कुछ कर दिखाना हैं इस जहान को
सांसो में भर के हौसले की हवा ऊँची कर उड़ान को |
बनते जायेंगे मौके प्रयास से, सफलता की तू तलाश न कर
नजर लगती हैं जमाने में, कर चुप मेहनत आवाज न कर |
साफ दिल रख तु,
लोग तो जहर दिल में भर साफ रखते है जुबान को
तू मेहनत की नीव दे अपनी मंजिल की मकान को
सांसो में भर के हौसले की हवा ऊँची कर उड़ान को |
सफर में मंजिल की चलते – चलते छाले पड़ जाएंगे पैरो में
पर कभी रुकना नहीं |
सारे घर की जिम्मेदारीयों का बोझ होगा कंधे पे तेरी
पर कभी झुकना नहीं |
ये जो आग जल रही तेरे अंदर जीत की ठंडी न होने देना
उड़ा ले रुकावटो के पेड़ इतना तेज रख जिद की तूफान को|
सांसो में भर के हौसले की हवा ऊँची कर उड़ान को |
— जुबेर जिलानी