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मृत्यु

बहुत दिन से कई साधकों का प्रश्न मृत्यु और इससे संबंधित त्रियोदश संस्कार के विषय में हो रहा था। यूं तो मृत्यु शाश्वत सत्य है और इसके अनुभव बताने के लिए व्यक्ति जीवित ही नहीं रह पाता फिर भी गरुड पुराण और कुछ उपनिषद इत्यादि शास्त्रों के आधार पर मृत्यु का वर्णन मिलता है। कुछ मनीषियों ने मृत्योपरांत कैसा लगता है इन सबके बारे में कुछ कुछ कहा है उसकी हम नीचे क्रमशः चर्चा करेंगे।

सामान्य भाषा मे किसी भी जीवात्मा अर्थात प्राणी के जीवन के अन्त को मृत्यु कहते हैं। लालच, मोह, रोग, कुपोषण के परिणामस्वरूप होती है। मुख्यतया मृत्यु के 101 स्वरूप होते हैं, लेकिन मुख्य 8 प्रकार की होती है, जिनमें बुढ़ापा, रोग, दुर्घटना, अकस्मती आघात, शोक, चिंता, ओर लालच मृत्यु के मुख्य रूप हैं।

इसके विपरीत अपनी आयु पूर्ण कर लेने के उपरांत आत्मा का जीर्ण-शीर्ण मरणधर्मा शरीर के त्याग को ही मृत्यु कहते हैं। वेद भगवान ने भी ‘मृत्युरीशे’ कहकर स्पष्ट कर दिया कि मृत्यु अवश्यंभावी है, तो मृत्यु पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है।

मृत्यु शब्द नहीं बल्कि, हिन्दू धर्म के महाभारत ग्रंथ के अनुसार, मृत्यु एक परम पवित्र मंगलकारी देवी है। सामान्य भाषा में किसी भी जीवात्मा अर्थात प्राणी के जीवन के अन्त को मृत्यु कहते हैं।

कहा जाता है कि व्यक्ति खाली हाथ आया है और खाली हाथ ही जाएगा। लेकिन, ग्रंथों के अनुसार व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी 5 चीजें उसके साथ अगले जन्म तक जाती हैं। तो आइए जानते हैं मरने के बाद व्यक्ति क्या साथ ले जाता है अपने साथ ।

आपने लोगों को कहते सुना होगा की मृत्यु के बाद व्यक्ति के साथ कुछ नहीं जाता। जो भी उस व्यक्ति से जुड़ी भौतिक सुख की चीजें है वह सब यहीं रह जाती हैं। अगर पुराण, वेद और बाकी धर्मग्रंथ को देखा जाए तो उनमें स्पष्ट बताया गया है कि व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी कुछ चीजें उसके साथ अगले जन्म तक जाती हैं। कुछ चीजें ऐसी हैं जिनका भुगतान व्यक्ति के अगले जन्म में भी करना पड़ता है। तो आइए जानते हैं ऐसी कौन सी पांच चीजें है जो मरने के बाद भी व्यक्ति के साथ जाती हैं।

1। ज्ञान
ज्ञान से अभिप्राय किसी भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान अथवा किसी समाज शास्त्र या ऐतिहासिक ज्ञान से नहीं है। ये वह ज्ञान है जो आत्म परमात्मा से संबंधित, आत्म ज्ञान। यह व्यक्ति को भीड़ में सबसे अलग करता है। ज्ञान के बल पर आप अपनी एक अलग पहचान और लोगों पर छाप छोड़ने में कामयाब रहते हैं। इसलिए अपनी मृत्यु से पहले पहले आप जितना ज्ञान ले लेंगे वह आपके बहुत काम आएगा। दरअसल, ऐसी मान्यता है कि जीवित रहते हुए व्यक्ति जो गुण सीख लेता है वह उसके साथ मृत्यु के बाद भी जाते हैं। इसलिए अपना समय खुद को अच्छा ज्ञान और गुण सीख में व्यस्त करें। श्री गीता में भी इस बात का जिक्र किया गया है कि ज्ञान और दान कभी नष्ट नहीं होता है।

2। कर्ज
धार्मिक ग्रंथों में बताया गया है कि कर्ज कभी भी व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ता, अगर किसी व्यक्ति ने आपका भला किया है तो उसका ये ऋण जैसा ही मौका मिले उतार देना चाहिए। अगर आप किसी का ऋण नहीं उतारते हैं तो उसे जन्म जन्मांतर तक चुकाना पड़ता है वह कर्ज उतारना पड़ता है। अगले जन्म में वह कर्ज किसी भी रूप में आपको चुकाना पड़ सकता है। साथ अगर आपने किसी को कर्ज दिया है और उस व्यक्ति की मृत्यु कर्ज चुकाने से पहले ही हो जाती है तो आपको भी बार बार जन्म लेना पड़ सकता है। इसलिए ऐसे व्यक्ति को उसकी मृत्यु के साथ ही माफ कर देना आपके लिए उचित रहेगा।

3। वासना और मोह
ग्रंथों के अनुसार, अगर किसी चीज को पाने की चाहत रखते हैं और वह चीज व्यक्ति को न मिले तो मृत्यु के बाद भी उस चीज की वासना उसका पीछा नहीं छोड़ती। सांसारिक सुखों की चाहत रखना वासना ही है। वासना को लेकर विष्णु पुराण में एक कथा भी मौजूद है। राजा भरत को अपने हिरण के बच्चे से बहुत प्यार था। उसी के बारे में सोचते हुए उसने प्राण त्याग दिए। अगले जन्म में राजा को खुद हिरण रूप में जन्म लेना पड़ा। इसलिए कामना और वासना को अपने मन में हावी नहीं होने देना चाहिए। साथ ही किसी भी चीज को लेकर अधिक मोह माया नहीं होनी चाहिए।

4। कर्म

गीता में कहा गया है कि मनुष्य जीवन बिना कर्म के संभव नहीं है। हर पल मनुष्य अच्छे ये बुरे कर्म करता है। मृत्यु समीप आने पर व्यक्ति के कर्मों द्वारा ही तय होता है कि उसे परलोक में सुख मिलेगा या दुख। इन्हीं के परिणाम से अगले जन्म में अच्छा बुरा फल प्राप्त होता है। कर्म 7 जन्मों तक व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ते हैं। इसका एक उदाहरण महाभारत में भी मौजूद है। बाणों की शैय्या पर लेटे हुए भीष्म को भगवान कृष्ण से जब भीष्म वे पूछा की मुझे ऐसी मृत्यु क्यों मिली तो भगवान कृष्ण ने उन्हें 7 जन्म पहले की घटना याद दिलाई। 7 जन्म पहले भीष्ण ने एक अधमरे सांप को उठाकर नागफनी के कांटों पर फेंक दिया था। कर्म मनुष्य का कभी पीछा नहीं छोड़ते।

5। पुण्य

अपने अक्सर घर के बड़ों से सुना होगा की दान और परोपकार कभी खाली नहीं जाता है। इसका जिक्र शास्त्रों में भी किया गया है। जीवन में अगर कोई अपरिचित व्यक्ति आपकी मदद करता है इसका अर्थ है कि वह पिछले जन्म में आपके द्वारा किए गए दान और परोपकार को चुका रहा है। इसलिए दान पुण्य करते रहना चाहिए। यह व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी इसके साथ जाते हैं।

यद्यपि साधारण व्यक्ति मृत्यु को भय और उदासी के साथ देखता है, जबकि, जो पहले मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं वे इसे सुखद, शांति और स्वतंत्रता के एक अद्भुत अनुभव के रूप में जानते हैं।

मृत्यु होने पर, आप भौतिक शरीर के सभी सीमा बन्धनों को भूल जाते हैं और अनुभव करते हैं कि आप कितने स्वतंत्र हैं। पहले कुछ क्षणों में भय की भावना रहती है — अज्ञात का भय, किसी वस्तु का भय जिससे आप अपरिचित हैं। परन्तु उसके बाद एक महान् अनुभूति होती है : आत्मा चैन और स्वतन्त्रता की हर्षपूर्ण भावना का अनुभव करती है। आप जान लेते हैं कि आपका अस्तित्त्व नश्वर शरीर से अलग है।

हममें से प्रत्येक को किसी दिन मरना ही है, अतः मृत्यु से भयभीत होने का क्या लाभ! निद्रा में आप अपने शरीर की चेतना खो देने की सम्भावना पर दुःखी नहीं होते, आप निद्रा को स्वतन्त्रता की एक अवस्था के रूप में स्वीकार करते हैं और उत्सुकता से उसकी प्रतीक्षा करते हैं। उसी प्रकार मृत्यु है, यह विश्राम की एक अवस्था है, इस जीवन से निवृत्ति।

इसमें भयभीत होने की कोई बात नहीं है। जब मृत्यु आए, तो उस पर हँसें। और उसका आदर के साथ स्वागत करें। मृत्यु केवल एक अनुभव है जिसके द्वारा आपको एक बहुत बड़ा पाठ सीखना है : आप तो आत्मा हैं एवम् आप मर नहीं सकते।

हमारा वास्तविक स्वरूप, अर्थात् आत्मा, अमर है। हम थोड़े समय के लिए मृत्यु नामक उस परिवर्तन में सो सकते हैं, परन्तु हमारा नाश कभी नहीं हो सकता। हमारा अस्तित्त्व है, और वह अस्तित्त्व शाश्वत है। लहर किनारे तक आती है, और फिर सागर में वापस चली जाती है; वह खो नहीं जाती। यह सागर के साथ एक हो जाती है या पुनः दूसरी लहर के रूप में वापस आ जाती है। यह शरीर आया है, और यह चला जाएगा; परन्तु इसके भीतर आत्मा रूपी मूल तत्त्व की कभी भी मृत्यु नहीं होगी। उस शाश्वत चेतना का कोई भी अन्त नहीं कर सकता।

जैसा कि विज्ञान ने सिद्ध किया है, पदार्थ का एक कण या ऊर्जा की एक तरंग भी अविनाशी है; मनुष्य की आत्मा या आध्यात्मिक मूल तत्त्व भी अविनाशी है। पदार्थ में परिवर्तन होते हैं; आत्मा में परिवर्तनशील अनुभव होते हैं। मूल परिवर्तनों को मृत्यु कहते हैं, परन्तु मृत्यु या शरीर का परिवर्तन आध्यात्मिक मूल तत्त्व (आत्मा) को परिवर्तित या नष्ट नहीं करता।

श्री कृष्ण ने गीता में कहा है,

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
भावार्थ : जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।।

शरीर केवल एक वस्त्र है। आपने इस जीवन में कितनी बार अपने वस्त्र बदले हैं, फिर भी इसके कारण आप यह नहीं कहेंगे कि आप बदल गए हैं। इसी प्रकार, मृत्यु के समय, जब आप इस शरीर रूपी वस्त्र को छोड़ देते हैं तो आप बदलते नहीं हैं। आप ठीक वैसे ही रहते हैं, एक अमर आत्मा, ईश्वर की सन्तान।

मृत्यु” एक बहुत असंगत/मिथ्या नाम है, क्योंकि मृत्यु है ही नहीं; जब आप जीवन से थक जाते हैं तब आप केवल अपने शरीर रूपी ऊपरी चोले को उतार देते हैं और सूक्ष्म जगत् में वापस चले जाते हैं।

भगवद्गीता आत्मा की अमरता का सुन्दरतापूर्वक और सान्त्वनापूर्ण ढंग से वर्णन करती है :

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
भावार्थ : यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥2/20॥

यह आत्मा न तो कभी पैदा हुई थी; और न ही कभी मरेगी; कोई ऐसा समय नहीं था जब यह नहीं थी; आदि और अन्त स्वप्न हैं!
आत्मा अजन्मी और अमर है और सदा अपरिवर्तनशील रही है;
मृत्यु ने कभी इसका स्पर्श नहीं किया, यद्यपि इसका शरीर रूपी घर मृत प्रतीत होता है।

श्री श्री परमहंस योगानन्द के अनुसार, यद्यपि साधारण व्यक्ति मृत्यु को भय और उदासी के साथ देखता है, जबकि, जो पहले मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं वे इसे शांति और स्वतंत्रता के एक अद्भुत अनुभव के रूप में जानते हैं।

जो भी इस संसार में आया है, प्रत्येक को किसी दिन मरना ही है, अतः मृत्यु से भयभीत होने का क्या लाभ! निद्रा में आप अपने शरीर की चेतना खो देने की सम्भावना पर दुःखी नहीं होते, आप निद्रा को स्वतन्त्रता की एक अवस्था के रूप में स्वीकार करते हैं और उत्सुकता से उसकी प्रतीक्षा करते हैं। उसी प्रकार मृत्यु है, यह विश्राम की एक अवस्था है, इस जीवन से निवृत्ति।

अपने वास्तविक स्वरूप को पहिचानिये।हमारा वास्तविक स्वरूप, अर्थात् आत्मा, अमर है। हम थोड़े समय के लिए मृत्यु नामक उस परिवर्तन में सो सकते हैं, परन्तु हमारा नाश कभी नहीं हो सकता। हमारा अस्तित्त्व है, और वह अस्तित्त्व शाश्वत है। लहर किनारे तक आती है, और फिर सागर में वापस चली जाती है; वह खो नहीं जाती। यह सागर के साथ एक हो जाती है या पुनः दूसरी लहर के रूप में वापस आ जाती है। यह शरीर आया है, और यह चला जाएगा; परन्तु इसके भीतर आत्मा रूपी मूल तत्त्व की कभी भी मृत्यु नहीं होगी। उस शाश्वत चेतना का कोई भी अन्त नहीं कर सकता।

“मृत्यु” एक बहुत असंगत/मिथ्या नाम है, क्योंकि मृत्यु है ही नहीं; जब आप जीवन से थक जाते हैं तब आप केवल अपने शरीर रूपी ऊपरी चोले को उतार देते हैं और सूक्ष्म जगत् में वापस चले जाते हैं।

मृत्यु अन्त नहीं है : यह अस्थायी मोक्ष है, जो आपको उस समय दिया जाता है, जब कर्म अर्थात् न्याय का नियम यह निर्धारित करता है कि आपके वर्तमान शरीर और परिवेश ने अपने उद्देश्य पूर्ण कर लिए हैं, अथवा जब आप बहुत थक जाते हैं, या कष्टों की थकान के कारण भौतिक जीवन के बोझ को और अधिक सहन नहीं कर सकते। जो लोग दुःख भोग रहे हैं उनके लिए मृत्यु शरीर की कष्टपूर्ण यातनाओं से जागृत शान्ति और नीरवता में पुनरुत्थान है। वयोवृद्ध लोगों के लिए, यह सेवा निवृत्ति (पेन्शन) है जो उन्होंने वर्षों तक जीवन में संघर्षरत रह कर अर्जित की है। सभी के लिए यह एक सुखद विश्राम है।

जब आप चिन्तन करते हैं कि यह संसार मृत्यु से भरा पड़ा है, और आपको भी शरीर का त्याग करना पड़ेगा, तो ईश्वर की योजना बड़ी निर्दयी प्रतीत होती है। आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि वे दयालु हैं।

परन्तु जब आप मृत्यु की प्रक्रिया को ज्ञान की दृष्टि से देखते हैं, तो आप अनुभव करते हैं कि अन्ततः यह ईश्वर का एक विचार मात्र ही है जो परिवर्तन के दुःस्वप्न से गुज़रता हुआ पुनः ईश्वर में आनन्दपूर्ण स्वतन्त्रता में जा रहा है। सन्त और पापी दोनों को मृत्यु होने पर, उनके अपने गुणों के अनुसार न्यूनाधिक स्तर पर समान रूप से स्वतन्त्रता दी जाती है। प्रभु के स्वप्न रूपी सूक्ष्म जगत् में, जहाँ पर आत्माएँ मृत्यु होने पर जाती हैं – वे ऐसी स्वतन्त्रता का आनन्द लेते हैं जिसे वे पृथ्वी के जीवनकाल में कभी नहीं जानते थे।

जैसा कि पूर्व में कहा है, कि मृत्यु अन्त नहीं है : यह अस्थायी मोक्ष है, जो आपको उस समय दिया जाता है, जब कर्म अर्थात् न्याय का नियम यह निर्धारित करता है कि आपके वर्तमान शरीर और परिवेश ने अपने निर्धारित कर्म और उद्देश्य पूर्ण कर लिए हैं, अथवा जब आप बहुत थक जाते हैं, या कष्टों की थकान के कारण भौतिक जीवन के बोझ को और अधिक सहन नहीं कर सकते। जो लोग दुःख भोग रहे हैं उनके लिए मृत्यु शरीर की कष्टपूर्ण यातनाओं से जागृत शान्ति और नीरवता में पुनरुत्थान है। वयोवृद्ध लोगों के लिए, यह सेवा निवृत्ति (पेन्शन) है जो उन्होंने वर्षों तक जीवन में संघर्षरत रह कर अर्जित की है। सभी के लिए यह एक सुखद विश्राम है।

दूसरे शब्दों में जब आप मृत्यु की प्रक्रिया को ज्ञान की दृष्टि से देखते हैं, तो आप अनुभव करते हैं कि अन्ततः यह ईश्वर का एक विचार मात्र ही है जो परिवर्तन के दुःस्वप्न से गुज़रता हुआ पुनः ईश्वर में आनन्दपूर्ण स्वतन्त्रता में जा रहा है। सन्त और पापी दोनों को मृत्यु होने पर, उनके अपने गुणों के अनुसार न्यूनाधिक स्तर पर समान रूप से स्वतन्त्रता दी जाती है। प्रभु के स्वप्न रूपी सूक्ष्म जगत् में, जहाँ पर आत्माएँ मृत्यु होने पर जाती हैं – वे ऐसी स्वतन्त्रता का आनन्द लेते हैं जिसे वे पृथ्वी के जीवनकाल में कभी नहीं जानते थे।

इसलिए उस व्यक्ति के लिए खेद मत व्यक्त करो जो मृत्यु के भ्रम से गुज़र रहा हो, क्योंकि कुछ ही क्षणों में वह स्वतन्त्र हो जाएगा। एक बार वह इस भ्रम से बाहर हो जाता है, तब वह अनुभव करता है कि फिर भी मृत्यु इतनी बुरी नहीं थी। वह अनुभव करता है कि उसकी नश्वरता केवल एक स्वप्न थी और यह जान कर हर्षित होता है कि अब कोई अग्नि उसे जला नहीं सकती, जल उसे डुबो नहीं सकता; वह स्वतन्त्र और सुरक्षित है।

मृत्यू के समय, मरते हुए मनुष्य की चेतना अचानक भौतिक शरीर के भार से, श्वास की आवश्यकता से, और शारीरिक कष्ट से मुक्ति का अनुभव करती है। आत्मा एक अत्यधिक शान्तिपूर्ण, अस्पष्ट, धुंधले प्रकाश वाली सुंरग में से ऊपर जाने के भाव का अनुभव करती है। उसके पश्चात् आत्मा एक विस्मरणशील निद्रा की अवस्था में चली जाती है, जो कि भौतिक शरीर में अत्यधिक गहरी निद्रा के अनुभव से लाखों गुणा गहरी और आनन्दप्रद होती है।…

मृत्यु के बाद की अवस्था को भिन्न-भिन्न लोग, पृथ्वी पर रहते हुए अपने जीवन जीने के ढंग के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव करते हैं। जिस प्रकार विभिन्न लोगों की निद्रा की अवधि और गहराई भिन्न होती है, उसी प्रकार उनके मृत्यु के उपरान्त के अनुभव भी भिन्न होते हैं। एक अच्छा व्यक्ति जो जीवन रूपी उद्योगशाला में कड़ी मेहनत करता है, थोड़े समय के लिए गहरी, अचेतन, आरामदायक निद्रा में चला जाता है। इसके पश्चात् वह सूक्ष्म जगत् के किसी जीवन के क्षेत्र में जागता है: “मेरे पिता के धाम में बहुत महल हैं।”
सूक्ष्म क्षेत्र की आत्माएँ पारदर्शी प्रकाश के वस्त्र पहनती हैं। वे स्वयं को त्वचा से ढके हड्डियों के ढाँचे में बन्द नहीं रखतीं। वे ऐसे दुर्बल, भारी शरीरों को धारण नहीं करती जो दूसरे ठोस पदार्थों से टकरा कर टूट जाएँ। इसलिए सूक्ष्म जगत् में मानव शरीर और ठोस पदार्थों, सागरों, विद्युत-कौंध एवं रोगों के मध्य कोई झगड़ा नहीं होता। न ही वहाँ पर दुर्घटनाएँ होती हैं, क्योंकि सब वस्तुएँ, घृणा की भावना के बिना परस्पर सहयोग से साथ साथ रहती हैं। सब प्रकार के स्पन्दन एक दूसरे के साथ तालमेल से कार्य करते हैं। सब शक्तियाँ शान्ति और सचेतन सहयोग में रहती हैं। सब आत्माएँ, किरणें जिन पर वे चलती हैं, और केसरिया किरणें, जिनका वे पान एवं भोजन करती हैं, सब जीवन्त प्रकाश से निर्मित हैं। आत्माएँ परस्पर सूझ-बूझ और सहयोग से रहती हैं, तथा वे ऑक्सीजन के नहीं अपितु परमात्मा के आनन्द में श्वास लेती हैं।

“सूक्ष्म जगत् में दूसरे जन्मों के मित्र एक दूसरे को आसानी से पहचान लेते हैं,”(श्रीयुक्तेश्वरजी ने कहा)। “मित्रता की अमरता पर हर्षित होते हुए वे प्रेम की अनश्वरता को अनुभव करते हैं, जिस पर, पृथ्वी पर होने वाले दुःखद मिथ्या वियोग के समय प्रायः सन्देह किया जाता था।”

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मृत्यु के बाद जीवन कितना आनंददायी है! अब और अधिक आपको हड्डियों के पुराने बोरे को ढोना नहीं पड़ेगा। शारीरिक सीमितताओं से अबाधित, आप सूक्ष्म स्वर्ग में मुक्त होंगे।

हमारे या किसी के भी प्रियजन की मृत्यु पर, अकारण शोक करने की अपेक्षा, यह समझें कि वह ईश्वर की इच्छा से एक उच्चतर लोक में चला गया है, और ईश्वर जानते हैं कि उसके लिए क्या सर्वोत्तम है। आपको प्रसन्न होना चाहिए कि वह मुक्त है। यह प्रार्थना करें कि आपका प्रेम और आपकी सद्भावना उसके आगे के पथ पर उसके लिए प्रोत्साहन का संदेशवाहक बनें। यह दृष्टिकोण कहीं अधिक सहायक है। निःसन्देह दिवंगत प्रियजनों को यदि हम याद ही न करें तो हम मानव कहलाने के योग्य नहीं होंगे; परन्तु उनके जाने से उत्पन्न अकेलेपन में ही डूबे रह कर हम यह नहीं चाहेंगे कि हमारी स्वार्थी आसक्ति उनको इस लोक से बाँधकर रखने का कारण बने। आपका अत्यधिक दुःखी रहना दिवंगत आत्मा के लिए अधिक शान्ति और मुक्ति की ओर अग्रसर होने में बाधा बनता है।
जो प्रियजन दिवंगत हो गए हैं उन्हें यदि अपने विचार भेजने हों तो अपने कमरे में शान्त बैठ कर ईश्वर का ध्यान करें। जब आपको अपने अन्तर में ईश्वर की शान्ति अनुभव हो, तब भ्रूमध्य में स्थित इच्छाशक्ति के केन्द्र अर्थात् कूटस्थ पर गहरी एकाग्रता के साथ मन को केन्द्रित करें और अपने दिवंगत प्रियजनों को अपना प्रेम प्रेषित करें।

कूटस्थ में उस व्यक्ति का मानस-दर्शन करें जिससे आप सम्पर्क करना चाहते हैं। उस आत्मा को अपने प्रेम, शक्ति एवं साहस के स्पन्दन भेजें।

यदि आप निरन्तर यह करते रहें और उस प्रियजन के प्रति आपकी चाहत की प्रबलता में कोई कमी आपने नहीं आने दी तो उस आत्मा तक आपके स्पन्दन निश्चित ही पहुँच जाएँगे। ऐसे विचार आपके प्रियजनों में अपनी सौम्यता एवं किसी के द्वारा प्रेम किए जाने की भावना उत्पन्न करते हैं। जिस तरह आप उन्हें नहीं भूले हैं, वैसे ही वे भी आपको नहीं भूले हैं।

अपने प्रियजनों को प्रेम और सद्भाव के विचार जितनी बार भेजना चाहें, भेजें, परन्तु कम से कम साल में एक बार, सम्भवतः किसी विशेष वर्षगाँठ पर अवश्य। मन ही मन उन्हें कहिए, “हम फिर भी कभी मिलेंगे और एक दूसरे से अपना दिव्य प्रेम एवं मित्रता बढ़ाना जारी रखेंगे।” अब यदि आप उन्हें अपने प्रेमपूर्ण विचार निरन्तर भेजते रहें, तो कभी आप उन्हें दोबारा/पुनः अवश्य ही मिलेंगे। आप जान जाएँगे कि यह जीवन अन्त नहीं है, अपितु आपके अपने प्रियजनों से सम्बन्ध की शाश्वत श्रृंखला की एक कड़ी मात्र है।

“परमात्मा का सागर मेरी आत्मा का नन्हा बुलबुला बन गया है। जीवन में तैरता रहे या मृत्यु में जाए, ब्रह्माण्डीय जागरूकता के सागर में मेरे जीवन का बुलबुला मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सकता। मैं परमात्मा की अनश्वरता के हृदय में सुरक्षित, अक्षय चेतना हूँ।”

मृत्यु से पूर्व या मृत्यु के समय व्यक्ति को केसा लगता है।
मृत्‍यु से पहले अंतिम कुछ दिनों में व्यक्ति को यमदूत नजर आने लगते हैं। यह पहले ही तय हो जाता है कि मृत्यु के बाद व्यक्ति को कौन से द्वार से ले जाना है और शरीर में से उसके प्राण कहां से निकलेंगे।’
शरीर से आत्मा कैसे निकलती है?
यह व्यक्ति के कर्मों पर निर्भर करता है कि मृत्यु के समय आत्मा शरीर के किस अंग से बाहर निकलेगी। पंडित जी के अनुसार-

यदि व्यक्ति पापी है तो उसकी आत्मा मल और मूत्र द्वार से बाहर निकलती है। ऐसे लोगों को यमदूत दक्षिण द्वार से ले जाते हैं, जिसे सबसे खराब माना गया है।
जो लोग मोह माया से ग्रसित होते हैं और जीने की बहुत ज्यादा चाह रखते हैं, उनकी मृत्‍यु(शव यात्रा देखना शुभ है या अशुभ) जब निकट आती है तो उनके प्राण आंखों से निकलते हैं और आंखों खुली की खुली रह जाती हैं। ऐसे लोगों के प्राण यमदूत बलपूर्वक निकालता है और मृत्यु के वक्त उन्हें बहुत अधिक पीड़ा होती है।
संत लोगों के प्राण मुंह से निकलते हैं और प्राण निकलते वक्त उनका मुंह टेढ़ा हो जाता है।
मृत्‍यु के वक्त जब व्यक्ति के प्राण नाक से निकलते हैं, तो आवाज आती है। धार्मिक लिहाज से इसे शुभ माना गया है। ऐसा तब होता है जब मरने वाला व्‍यक्ति अपनी सभी जिम्मेदारियों को निभा चुका होता है।
यमलोक द्वार और उनका मतलब जानें
‘यह भी व्यक्ति के कर्मों पर निर्धारित करता है कि मृत्यु के बाद वह किस द्वार से यमलोक जाएगा।’

दक्षिण द्वार- सबसे खराब द्वार माना गया है। यमलोक तक जाने का सबसे कठिन रास्ता है। जिन लोगों ने जीवन में घोर पाप किए होते हैं, उन्हीं को यह द्वार पार करके जाना होता है।

उत्तर द्वार- जो लोग जीवन में माता-पिता की सेवा करते हैं और बड़ों का आदर करते हैं, उनकी आत्मा को यमदूत उत्‍तर द्वार से ले जाते हैं और यह यमलोक में प्रवेश करने का सबसे आसान द्वार होता है।

पूर्व द्वार- जो लोग जीवन-मृत्यु के चक्र से बाहर निकलकर मोक्ष प्राप्त करते हैं, उन्हें यह द्वारा प्राप्‍त होता है। इस द्वार पर देवताओं द्वारा आत्मा का स्वागत किया जाता है।

पश्चिम द्वार- पश्चिम द्वार से भी अच्‍छे लोगों को स्‍वागत किया जाता है। खासतौर पर जिन लोगों के प्राण किसी की रक्षा करते हुए या फिर किसी धार्मिक स्थल पर निकले हों, तो उन्हें इस रास्ते से यमलोक में प्रवेश मिलता है। ऐसे लोगों का जन्‍म बहुत ही अच्छी योनी में होता है।
कब तक अपने परिवार वालों के साथ ही रहती है आत्मा?
कहा जाता है कि, ‘आत्मा की शांति के लिए 13 दिन तक हिंदू धर्म में क्रिया का विधान बताया गया है। जिस व्यक्ति के घर वाले इन सारी क्रियाओं को विधि विधान से नहीं करते हैं, उनकी आत्मा को मरने के बाद भी कष्ट ही मिलता है और वह नर्क भोगते हैं।’

इतना ही नहीं, मृत्‍यु के बाद 13 दिन तक व्यक्ति की आत्मा अपने परिवार वालों के पास ही रहती है और यह देखती है कि उसके परिवार वाले उसकी आत्मा को शांत करने के लिए विधि से सारे काम कर रहे हैं या नहीं।

13 दिन बाद ही मृत व्यक्ति की यात्रा यमलोक के लिए शुरू होती है। यमलोक की यात्रा कितने वक्त में खत्म होगी यह भी व्यक्ति के कर्मों पर निर्भर करता है। धार्मिक ग्रंथ गरुड़ पुराण के मुताबिक, जो लोग दक्षिण द्वार से यमलोक जाते हैं, उन्हें 100 वर्ष भी लग जाते हैं।

गीता के अनुसार मृत्यु के बाद क्या होता है?

कृष्ण कहते हैं – जीव आत्मा। मृत्यु के बाद क्या होता है देखो, जब किसी की मृत्यु होती है तो असल में ये जो बाहर का अस्थूल शरीर है केवल यही मरता है। इस अस्थूल शरीर के अंदर जो सूक्ष्म शरीर है वो नहीं मरता। वो सूक्ष्म शरीर आत्मा के प्रकाश को अपने साथ लिए मृत्युलोक से निकलकर दूसरे लोकों को चला जाता है.
भगवत गीता: मृत्यु के बाद क्या होता ह
भागवत गीता के अनुसार मृत्यु क्या है?
भगवद्गीता में, कृष्ण सिखाते हैं कि व्यक्ति केवल शरीर को मार सकता है; आत्मा अमर है। मृत्यु के समय, आत्मा का दूसरे शरीर में पुनर्जन्म होता है, या, जिन्होंने सच्ची शिक्षाओं को पूरी तरह से समझ लिया है, उनके Sabh यह मुक्ति (मोक्ष) या विलुप्त होने (निर्वाण) को प्राप्त करती है – अर्थात, पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति।

गीता में श्रीकृष्ण ने आत्मा को अमर और अविनाशी बताया है जिसे न शस्त्र कट सकता है, पानी इसे गला नहीं सकता, अग्नि इसे जल नहीं सकती, वायु इसे सोख नहीं सकती।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
इस श्लोक का अर्थ है: आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है।

आपको ज्ञात होगा कि मरते समय गीता का कौनसा अध्याय सुनाया जाता है?
जैसे गीता के आठवें अध्याय के छठे श्लोक का अर्थ किया जाता है कि ‘यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह उस उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित है।

मनुष्य के कर्मों के अनुसार उस आत्मा को यातनाएं दी जाती हैं. नरक में यातनाएं झेलने के बाद आत्मा को पुनर्जन्म मिलता हैं. पौराणिक शास्त्रों के अनुसार, पुनर्जन्म मृत्यु के तीसरे दिन से लेकर 40 दिन में होता है.
मनुष्य-जीवन का सच्चा मार्गदर्शक एवं आत्मा का भोजन है स्वाध्याय। स्वाध्याय से जीवन को आदर्श बनाने की सत्प्रेरणा स्वतः मिलीती है। स्वाध्याय हमारे चिंतन में सही विचारों का समावेश करके चरित्र-निर्माण करने में सहायक बनता है, साथ ही ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर कराता है।

गरुड़ पुराण में बताया गया है कि जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो यमराज के यमदूत उसे अपने साथ यमलोक ले जाते हैं। यहां उसके अच्छे और बुरे कर्मों का हिसाब होता है और फिर 24 घंटे के अंदर यमदूत उस प्राणी की आत्मा को वापिस घर छोड़ जाते हैं।
आत्मा का निवास स्थान हृदय में होता है इस बात का उल्लेख श्रीकृष्ण ने गीता में इस प्रकार किया है- ईश्वर: सर्वभूतानां हृदेशेअर्जुन तिष्ठति।
राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेतयोनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें। इससे पूर्व ये सभी पितृलोक में रहते हैं वहीं उनका न्याय होता है। आत्मा सत्रह दिन तक यात्रा करने के पश्चात अठारहवें दिन यमपुरी पहुंचती है।

जन साधारण को समझाने हेतु मृत्यु के समय केसा प्रतीत होता है ध्यान से इसे समझें और सोचें। आप सभी सपने तो अवश्य देखते होंगे। कुछ लोगों को नहीं भी आते हैं व्यक्तिगत रूप से में अपनी बात करूं तो मुझे लगभग रोज ही सपने आते हैं एक रात्रि में कई सपने भी आते हैं एक विचित्र बात मेरे बारे में यह है कि मुझे स्वप्न के अंदर भी स्वप्न यानि की स्वप्न में मुझे अपने उप स्वप्न के बारे में भान होता है कि कहीं ये स्वप्न तो नहीं। इसका कारण तो नहीं समझ पाया हूं लेकिन कुछ लोग इसे मेरी विभिन्न प्रकार की मानसिक, आध्यात्मिक, आत्मिक क्रियाओं के कारण होता होगा।
सपने का उदाहरण मेने इसलिए लिया है कि मृत्यु के समय आपको बिलकुल एक स्वप्न की तरह प्रतीत होता है, आपको नहीं लगता कि आप मर गए हो। प्रिय जनों को रोते देखआप आश्चर्य करते हो कि ये सब क्यों रो रहे हैं शरीर को देख आत्मा सोचती है कि में तो यहीं पड़ा हूं कहीं नही गया और आप चिल्लाते हो प्रिय जन को कहते हो लेकिन चूंकि आपके भौतिक स्थूल शरीर का अंत हो चुका है तो न आप अपने मुख से कुछ बोल सकते हो, न सुन सकते हो बस अपनी आत्मा के सूक्ष्म शरीर की पारलौकिक दृष्टि से सब देख सकते हो। पुराणों के अनुसार जब 2 यम दूत आपकी आत्मा को शरीर से निकलते हैं तब 40 हजार बिच्छुओं के काटने जितना दर्द होता है और यम दूत आत्मा रूपी पिंड को रस्सी से बांध जबरन बाहर खींचते हैं क्योंकि साधारण आत्माएं शरीर से निकलने का घोर विरोध करती हैं रोती हैं विलाप करती हैं मुझे मत ले जाइए।
अब इससे आगे क्या होता है वह में इसके अंत्येष्टि संस्कार से लेकर त्रियोदशी संस्कारों में आत्मा के साथ क्या होता है यह उस लेख में समझायूंगा।

— डा एस के अरेला
(स्वामी एस प्रज्ञानंद)

डॉ. सुरेन्द्र कुमार अरेला

रिटायर्ड आई आर एस ऑफिसर, आध्यात्मिक नाम स्वामी एस. प्रज्ञानंद आकाश गंगा 41 & 42 चाणक्य पूरी सी टीवी मानस नगर के पास शाहगंज, आगरा 282010 email- skarelaito@gmail.com