श्री गुरुपूर्णिमा उत्सव
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः
भारतीय पर्व एवं उत्सवों में गुरू पूर्णिमा का पर्व अत्यंत महत्व का पर्व है। यह पर्व सम्पूर्ण भारतवर्ष में श्रद्धा, हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। हमारे यहां गुरू और शिष्य के सम्बन्ध को अत्यन्त पवित्र माना गया है। समाज निर्माण, संस्कृति, आध्यात्मिकता का विकास भी इन्ही गुरू, शिष्य परम्परा पर ही निर्भर करता है। शास्त्रों में गुरू का श्रेष्ठ वर्णन पढ़ने को मिलता है। महात्मा कबीर दास जी ने भी गुरू का वर्णन करते हुए कहा है कि-
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय। गोस्वामी तुलसीदास जी श्री राम चरितमानस में लिखते हैं कि ‘बिनु गुरु भव निधि तरई न कोई।” भारतीय इतिहास गुरु-शिष्य संबंधों की गाथाओं से भरा पड़ा है। समय-समय पर गुरुओं ने जन-कल्याण के लिये मंत्र दिया, जिसे उनके शिष्यों ने दूर-दूर तक प्रसारित एवं प्रचारित किया इस संबंध की स्मृति में आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व अनादिकाल से मनाया जाता रहा है। आषाढ़ पूर्णिमा को ही कृष्ण द्वावैपायन जिन्हे भगवान वेद व्यास के नाम से हम सभी जानते हैं। वेद व्यास ने ही महाभारत सहित विपुल वेद वेदांग की रचना की। इसे महर्षि व्यास ने अधिक व्यापक बनाया। इस कारण इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। प्राचीन काल में गुरु दीक्षा और गुरु दक्षिणा के लिये जो दिन नियत था, उसे ही गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता था। इसके पीछे यह भी भावना है कि पूर्णिमा को किया गया व्रत-अनुष्ठान पूर्णता एवं सर्वसिद्धि प्रदान करता है। निश्चत ही, यह वर्ष में एक बार हमें कल्याणकारी दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा देता है। भारतवर्ष की गुरु परम्परा अत्यंयन्तश्रेष्ठ परम्परा रही है। जब – जब भारतवर्ष में धर्म, परम्परा, संस्कृति का लोप हुआ तब – तब भारत की ऋषि परम्परा, गुरुओं ने मार्गदर्शन किया है। मगध के छिन्न-भिन्न हो रहे साम्राज्य को कौन बचाता अगर चन्द्रगुप्त के चाणक्य ना होते? बर्बर मुस्लिम आक्रमणकारियों से हिन्दू राष्ट्र की रक्षा कौन करता अगर छत्रपति शिवाजी के समर्थ गुरु रामदास ना होते? गुरू गोदिं सिंह का खालसा पंथ कैसे सिरजा जाता तथा भारत और समाज की रक्षा कैसे होती अगर गुरु ग्रंथ साहिब की अमर वाणी ना होती? वर्तमान भारतवर्ष की पराधीनता की बेडि़यां तोड़कर स्वतंत्रता और हिन्दू स्वाभिमान की क्रांति कैसे प्रारंभ होती अगर डा. हेडगेवार के साथ भगवा ध्वज की शाश्वत बलिदानी परम्परा का गुरु-बल ना होता? भारत के प्राण सभ्यतामूलक संस्थाओं में बसे हैं। माता, पिता और गुरु-ये वे संस्थान हैं जिन्होंने इस देश की हवा, पानी और मिट्टी को बचाया। रामचरित मानस में श्रीराम के बाल्यकाल के गुणों में सबसे प्रमुख है “मात-पिता गुरु नाविही माथा।” वे माता-पिता और गुरु के आदेश से बंधे थे और जो भी धर्म तथा देश के हित में हो, वही आदेश उन्हें माता-पिता और गुरु से प्राप्त होता था। जब वे किशोरवय के ही थे और उनकी मसें भी नहीं भीगी थीं तभी गुरु वशिष्ठ उन्हें देश, धर्म और समाज की रक्षा के लिये उनके पिता दशरथ से मांग कर ले गये। जब देश संकट में हो और धर्म पर मर्दायाहीनता का आक्रमण हो तो समाज के तरुण और युवा शक्ति क्या सिर्फ अपना कैरियर और भविष्य को बनाने में लगी रहे? यह गुरू का ही प्रताप और मार्गदर्शन होता है कि वह समाज को राष्ट्र तथा धर्म की रक्षा के लिये जागृत और चैतन्य करे। जब कश्मीर के हिन्दू पंडितों पर संकट आया और इस्लाम के आक्रमणकारियों ने उन्हें घाटी से बाहर खदेड़ दिया तो कश्मीर से 11 पंडित गुरु तेग बहादुर साहिब के पास आये। उनकी व्यथा सुनकर गुरु तेग बहादुर साहिब बहुत पीडि़त हुये। उनके मुंह से शब्द निकले कि आपकी रक्षा के लिये तो किसी महापुरुष को बलिदान देना होगा। उस समय नन्हें बालक गोविंद राय, जो कालांतर में गुरु गोविंद कहलाये, हाथ जोड़कर बोले, हे सच्चे पातशाह, आपसे बढ़कर महापुरुष कौन हो सकता है? गुरु तेग बहादुर साहिब ने गोविंद राय को आशीर्वाद दिया और कश्मीरी पंडितों की रक्षा की।. यह गुरु तेग बहादुर साहिब का बलिदान ही था कि उन्हें हिन्द की चादर कहा गया। गुरु तेग बहादुर के बलिदान के बाद गुरु गोविंद सिंह जी के दोनों साहिबजादे, जोरावर सिंह और फतेह सिंह सरहिंद के किले में काजी के द्वारा जिंदा दीवार में चिनवा दिये गये। वीर हकीकत राय ने धर्म के लिये प्राण दे दिये लेकिन धर्म नहीं छोड़ा। यह कौन सी शक्ति थी जो उनके पीछे काम कर रही थी? वह कौन सा ज्ञान धन था कि जिसने इन वीरों के हृदय में राष्ट्रधर्म की रक्षा के लिये आत्मोत्सर्ग करने की हिम्मत भर दी? आचार्य बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपनी अमरकृति आनंद मठ में उन्हीं महान संन्यासियों की खड्गधारी परम्परा का अद्भुत और आग्नेय वर्णन किया है जो भवानी भारती की रक्षा के लिये शत्रु दल का वैसे ही संहार करते गये जैसे महिषासुर मर्दिनी शत्रुओं का दलन करती है। वंदेमातरम् के जयघोष के साथ जब संन्यासी योद्धा अश्व पर सवार होकर शत्रुओं पर वार करते थे तो अरिदल संख्या में अधिक होते हुए भी काई की तरह फटता जाता था। वंदेमातरम् से विजयी आकाश नादित हो उठता था। डा. केशव बलिराम हेडगेवार ने 1925 में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की तो परम पवित्र भगवा ध्वज को अपना गुरू मानने के पीछे यही कारण था कि वे शताब्दियों से सिंचित सभ्यता और संस्कृति के बल से हिन्दू राष्ट्र को जीवंत करना चाहते थे। यदि राष्ट्र के घटकों की स्मृति में त्याग, तप और बलिदान की विजयशाली परम्परा जीवित है तो दुनिया की कोई शक्ति ना उन्हें परास्त कर सकती है और ना ही पराधीन बना सकती है। भगवा ध्वज रामकृष्ण, दक्षिण के चोल राजाओं, सम्राट कृष्णदेव राय, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह और महाराजा रणजीत सिंह की पराक्रमी परम्परा और सदा विजयी भाव का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है। इसमें यदि सम्राट हर्ष और विक्रमादित्य का प्रजा वत्सल राज्य अभिव्यक्त होता है तो व्यास, दधीचि और समर्थ गुरु रामदास से लेकर स्वामी रामतीर्थ, स्वामी दयानंद, महर्षि अरविंद, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद तक का वह आध्यात्मिक तेज भी प्रकट होता है, जिसने राष्ट्र और धर्म को संयुक्त किया तथा आदिशंकर की वाणी से यह घोषित करवाया कि राष्ट्र को जोड़ते हुए ही धर्म प्रतिष्ठित हो सकता है। जो धर्म साधना राष्ट्र और जन से विमुख हो, केवल अपने मोक्ष के लिये कामना करे, वह धर्म साधना भारत के गुरुओं ने कभी प्रतिष्ठित नहीं की स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना करते हुए उसका उद्देश्य ‘आत्मनो मोक्षार्थ जगद् हिताय च’ रखा। अर्थात मनुष्यों के कल्याण में ही मेरा मोक्ष है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का रक्षा कवच बना और उसके स्वयंसेवक प्रधानमंत्री पद से लेकर देश के सीमावर्ती गांवों तक में भारत के नये अभ्युदय के लिये कार्य कर रहे हैं और इसके पीछे भारत की सभ्यता और संस्कृति का तपोमय बल है जो गुरु परम्परा से ही जीवित रहा है। इसलिये गुरु पूर्णिमा के अवसर पर देश भर में करोड़ों स्वयंसेवक भगवा ध्वज के समक्ष प्रणाम निवेदित करते हुए शुद्ध समर्पण भाव से गुरु-दक्षिणा अर्पित करते हैं। यह न तो शुल्क है और न ही चंदा। यह राष्ट्र के लिए बलिदानी भाव से ओत-प्रोत स्वयंसेवकों का श्रद्धामय प्रणाम ही होता है जो दक्षिणा राष्ट्र रक्षा करते हुए शिवाजी ने समर्थ गुरु रामदास को दी। राष्ट्र रक्षा का वही संकल्प संघ के स्वयंसेवक भगवा ध्वज को अर्पित करते हैं।