गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

बाद मरने के, काफ़िला देखा। 

आज मेरी नज़र ने, क्या देखा।।

एक कंधे को जो, तरसता था। 

चार कंधों का, आसरा देखा।।

उम्र गुज़री, संँभालते रिश्ते। 

फिर इन्हीं से छला गया, देखा?

मोह माया में, उलझ के जानाँ। 

तू क्या था, और क्या हुआ, देखा?

रो रहा दुर्दशा पे, क्यों अपनी। 

मैंने सबको ही तो, मरा देखा।।

रक्त रिसता है दिल से, क्यों फिर भी। 

उसको हंँसते हुए, सदा देखा।।

ऐ ‘किरण’ चल, जहाँ से दूर चलें। 

हर नगर ज़ख़्म से, भरा देखा।।

— प्रमिला ‘किरण’

प्रमिला 'किरण'

इटारसी, मध्य प्रदेश