आनंद की खोज
धरती पर केवल मानव जन्म मिल जाना ही पर्याप्त नहीं है अपितु हमें जीवन जीने की कला भी आनी आवश्यक है।अगर जीवन जीने की कला नही आती, तो मानव जीवन व्यर्थ है। जैसे पशु- पक्षी अपने लिए किसी भी वस्तु का बिल्कुल भी संग्रह नहीं करते फिर भी भी उन्हें इस प्रकृति द्वारा जीवनोपयोगी सब कुछ प्राप्त हो जाता है। ठीक उसी प्रकार मानव को भी पशु -पक्षियो से सीख लेनी चाहिए,और अपने निजी स्वार्थ के लिए किसी वस्तु का संग्रह नही करना चाहिए।प्रकृति सभी की जरूरत के मुताबिक हर चीज समय पर उपलब्ध करा देती है।
आनन्द साधन से नहीं साधना से प्राप्त होता है। आंनद भीतर का विषय है, तृप्ति आत्मा का विषय है। मन को कितना भी मिल जाए , यह अपूर्णता का बार – बार अनुभव कराता रहेगा। जो अपने भीतर तृप्त हो गया उसे बाहर के अभाव कभी परेशान नहीं करते। जो व्यक्ति अपने अंदर के आनंद से प्रसन्न नही होता,उनके पास सब कुछ होते हुए भी व्यर्थ है। जीवन तो बड़ा आनंदमय है लेकिन हम अपनी इच्छाओं के कारण, अपनी वासनाओं के कारण इसे कष्टप्रद और क्लेशमय बनाते हैं। केवल संग्रह के लिए जीने की प्रवृत्ति ही जीवन को कष्टमय बनाती है। जिसे इच्छाओं को छोड़कर आवश्यकताओं में जीना आ गया, समझो उसे सुखमय जीवन जीना भी आ गया।
“समय की धारा में उम्र बह जाती है….
जो घड़ी आनंद से जी लो, वही याद बन जाती है…!!
— प्रशांत अवस्थी “रावेन्द्र भैय्या”