झुलसते शहरों में बढ़ती दुश्वारियां
कुछ वैज्ञानिक प्रमाण बताते हैं कि बढ़ते तापमान के साथ ‘सीजनल इफेक्टिव डिसार्डर’ की स्थिति बनती है। इससे लोगों के दिमाग में पाए जाने वाले न्यूरो ट्रांसमीटर में तेजी से बदलाव आते हैं। ये परिवर्तन लोगों को आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठाने को प्रेरित करते हैं। वर्ष 2018 में अमेरिकी विश्वविद्यालय स्टैनफोर्ड के शोधकर्ताओं ने गर्म मौसम और बढ़ती आत्महत्या दर के बीच एक मजबूत संबंध चिह्नित किया था। स्टैनफोर्ड के अर्थशास्त्री मार्शल वर्क के नेतृत्व में हुए अध्ययन में दावा किया गया था कि 2050 तक अनुमानित तापमान वृद्धि से संयुक्त राज्य अमेरिका और मैक्सिको में अतिरिक्त इक्कीस हजार आत्महत्याएं हो सकती हैं।
गर्मी, लू और उमस किस तरह जानलेवा बन गई हैं- इसके उदाहरण दुनिया भर के शहरों में दिख रहे हैं। भारत में शहरों को बेहतर बुनियादी ढांचे, शानदार जनसुविधाओं और रोजगार के अवसरों के केंद्र के रूप में देखा जाता रहा है। वहां रहने वाले लोग एक अच्छी जीवनशैली वाली जिंदगी की उम्मीद करते हैं। पर अब शहर ही दुनिया के लिए मुसीबत बनते जा रहे हैं। आबादी के बोझ से कराहते और सुविधाओं के नाम पर भयानक प्रदूषण झेलते ये शहर बुनियादी ढांचे पर भीषण दबाव, महंगाई और कामकाज की जगहों से रिहाइश की बढ़ती दूरियों के कारण उनमें रहने वालों की सुविधा के बजाय दुविधा का केंद्र बन रहे हैं। इधर कुछ वर्षों में उन्हें एक नई समस्या ने घेर लिया है। यह समस्या गांवों के मुकाबले शहरों में ज्यादा गर्मी पड़ना है। इस समस्या को वैज्ञानिकों ने ‘अर्बन हीट’ कहा है। इसे शहरी लू भी कहा जा रहा है।
इस शहरी लू पर नजर वर्ष 2018 में तब गई थी, जब ‘यूएस जर्नल प्रोसिडिंग्स आफ द नेशनल एकेडमी आफ साइंसेज’ ने दुनिया के चौवालीस शहरों में बढ़ते तापमान पर एक रपट प्रकाशित की थी। उस शोध रपट में दक्षिण एशिया के छह महानगरों में पैदा होने वाली शहरी लू (अर्बन हीट) पर केंद्रित करते हुए बताया गया था कि वर्ष 1979 से 2005 के बीच जिस कोलकाता शहर में सालाना सोलह दिन भयंकर लू चलती थी, अब वहां ऐसे दिनों की संख्या बढ़कर चौवालीस तक हो गई है। शोध में दावा किया गया था कि दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे महानगरों की करोड़ों की आबादी के सामने आने वाले वक्त में शहरी लू झेलने का खतरा चार गुना तक बढ़ गया है। इसमें एक चेतावनी भी दी गई थी कि अब शहरियों को इस ‘अर्बन हीट’ के साथ रहना और लगातार उसका खतरा सहना सीखना होगा।
इधर, ‘सेंटर फार साइंस एंड एनवायरनमेंट’ ने अपनी पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ में एक विस्तृत रपट में इस समस्या का खुलासा किया है। इसमें सवाल उठाया गया है कि कंक्रीट के जंगलों में बदलते हरियाली विहीन शहरों में आखिर इंसान कितनी अधिक गर्मी झेल सकता है। सवाल यह भी है कि आखिर बड़े शहरों या महानगरों में ऐसा क्या है, जो वहां प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाली गर्मी या लू के मुकाबले कई गुना ज्यादा गर्मी पैदा हो रही है। इसका गंभीर पक्ष यह है कि शहरी लू केवल मई-जून में नहीं, घोर सर्दी में भी अपना असर दिखा सकती है।
‘अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन’ के ‘जियोफिजिकल रिसर्च लेटर जर्नल’ में एक शोधपत्र ‘अर्बन हीट आईलैंड ओवर दिल्ली पंचेज होल्स इन वाइडस्प्रेड फाग इन द इंडो-गैंगेटिक प्लेन्स’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। उसमें बताया गया था कि 2018 में देश की राजधानी दिल्ली में पिछले सत्रह वर्षों के मुकाबले प्राकृतिक कोहरे का सबसे कम असर इसलिए हुआ, क्योंकि यहां पैदा हुए प्रदूषण और गर्मी ने कोहरे में छेद कर दिए थे। सिर्फ दिल्ली नहीं, दुनिया भर के शहरों में शहरी प्रदूषण के कारण सर्दियों में कोहरे की सघनता में भारी कमी देखी गई। आइआइटी, मुंबई और देहरादून स्थित ‘यूनिवर्सिटी आफ पेट्रोलियम एंड एनर्जी स्टडीज’ ने ‘नासा’ के सत्रह वर्षों के उपग्रह डेटा का विश्लेषण कर कोहरा छंटने की प्रक्रिया को ‘फाग होल’ की संज्ञा देते हुए बताया था कि दिल्ली में जनवरी, 2018 में नब्बे से ज्यादा फाग होल हो गए थे। शोधकर्ताओं ने कहा था कि शहरों की गर्मी कोहरे को जला रही है, जिसकी वजह से ग्रामीण इलाके के मुकाबले शहरों का तापमान चार से पांच डिग्री ज्यादा हो जाता है।
बताया गया कि शहरों में तेजी से हो रहे हर किस्म के निर्माण कार्यों, बढ़ रहे शहरीकरण, हरित पट्टी में तेज गिरावट और कंक्रीट से तैयार हो रही संरचनाओं के कारण जमीन के अंदर की गर्मी सतह में या सतह के करीब फंसकर रह जाती है। आज की सच्चाई यही है कि दिल्ली- मुंबई समेत देश के तेईस शहरों की करीब बारह-पंद्रह करोड़ आबादी की जरूरतों के मद्देनजर हुए शहरीकरण ने शहरों को ऐसे ‘हीट’ और ‘गैस चैंबरों’ में बदल डाला है, जो मौसम की अतियों का कारण बन रहे हैं। ये शहर क्यों ऐसे बन गए हैं, इसकी कुछ स्पष्ट वजहें हैं। जैसे, कम जगह में ऊंची इमारतों का अधिक संख्या में बनना और उन्हें ठंडा, जगमगाता और साफ-सुथरा रखने के लिए बिजली का अंधाधुंध इस्तेमाल करना। चाहे घर हो या दफ्तर, मौसम से लड़ने के लिए उन्हें वातानुकूलित बनाना और आने-जाने के लिए कारों आदि का बढ़ता इस्तेमाल । अगर किसी शहर में एक वक्त में लाखों-करोड़ों एयर कंडीशनर रेफ्रिजरेटर (एसी-फ्रिज) चल रहे हों, पेट्रोल-डीजल से चलने वाली लाखों कारें ग्रीनहाउस धुएं के साथ गर्मी भी वातावरण में घोल रही हों, तो शहरों में नकली रूप से पैदा होने वाली इस लू की संहार क्षमता का अंदाजा लगाया जा सकता है। सवाल है कि इस शहरी लू से कैसे निपटा जाए। अभी तक सामान्य मौसमी बदलावों से मुकाबले के लिए जो साधन और उपाय आजमाए जा रहे हैं, उनमें कोई फेरबदल लाए बगैर संभव नहीं है कि हम शहरी लू का मुकाबला कर पाएं। जाहिर है, इसके लिए शहरीकरण की योजनाओं के बारे में नए सिरे से कोई सोच बनानी होगी। अभी तो हमारे योजनाकार देश की आबादी की बढ़ती जरूरतों और गांवों से पलायन कर शहरों की ओर आती आबादी के मद्देनजर आवास समस्या का ही समाधान खोज रहे हैं, उनके सामने शहरों की आबोहवा को बिगाड़ने वाली चीजों का कोई खाका ही मौजूद नहीं है। कुछ भारतीय योजनाकारों के मत में कंक्रीट की ऊंची इमारतों के बल पर होने वाला शहरीकरण असल में भारत के विकास के गांधीवादी नजरिये को आघात लगाता है।
वास्तुकार एजीके मेनन ने इस बारे में कहा था कि अच्छा हो कि हम भावी शहरों के निर्माण के मामले में विकसित कहे जाने वाले पश्चिमी मुल्कों की नकल न करें और अपनी परंपराओं को ध्यान में रखते हुए योजनाएं बनाएं। अगर ऐसा होगा, तभी हम शहरी लू और इसी किस्म की अन्य शहरी त्रासदियों का कुछ मुकाबला कर पाएंगे।
— विजय गर्ग