संस्मरण

युद्ध के साए में हिंदी की पढ़ाई

ठीक 30 साल हुए मैं रूस छोड़ कर इजराइल में बस आया। मैं यहां आया वह सारी बातें पीछे छोड़ कर जिनका मैं आदि था और यूं कहा जा सकता है कि मुझे अपना जीवन शून्य से आरंभ करना पड़ा। कखग से ही यहां की भाषा हिब्रू को ग्रहण करना पड़ा। लेकिन मैंने सबसे पहले उन शब्दों को पल्ले बांध लिए जिन्हें नये देश में प्राथमिक पग रखनेवाले प्रवासियों को सीखने की ज़रूरत नहीं पड़ती। मेरे प्राथमिक हिब्रू शब्दों में מחבל (आतंकवादी),פיגוע (आतंकी हमला),חפץ חשוד (संदिग्ध वस्तु),פיצוץ (धमाका),לירות (गोली चलाना),נשק (हथियार) आदि थे। तब से युद्ध की शब्दावली मेरे शब्द भंडार का आधार बन गई। यह वह समय था जब ‘फिलिस्तीन’ राज्य बनाकर शांति प्रक्रिया को बढ़ावा देने के विचार को लेकर सभी उत्साहित थे। लेकिन थोड़ी ही देर बाद वह उत्साह बुझ गया। शांति प्रक्रिया (peace process) चरम पर थी, तो आतंकी हमले लगभग रोज़ किए जाने लगे, हिंसा का तांडव शुरू हो गया। ‘आज़ादी के मुजाहिदीन’ बम लगाकर या आत्मघाती हमले कर के बसें, भोजनालय, दुकानें या बाजार उड़ा देते थे। उस वक्त मैं यरुशलम में रह रहा था और हिब्रू विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ा रहा था। मैं उन मौकों की गिनती भी शुरू की, जब मैं केंद्रीय मंडी में ख़रीदारी के समय, बस में घूमते या सड़क पर चलते समय आतंकवादी हमलों का शिकार बनते बनते बचा। कई बार ऐसा हुआ कि जिन स्थानों पर होकर में चला वहां दस-पंद्रह मिनट बाद विस्फ़ोट हुए। 2002 में यरुशलम के हिब्रू विश्वविद्यालय में आतंकियों ने छात्रों-छात्राओं से भरा कैफेटेरिया फूंक दिया, जिसके कारण मेरे कुछ वामपंथी विद्यार्थियों ने फलस्तीन राज्य के समर्थन में प्रदर्शनों में भाग लेना छोड़ दिया।
सन 2000 में मुझे तेल अवीव विश्वविद्यालय में हिंदी का पाठन करने के लिये आमंत्रित किया गया, और मुझे वहां बस से जाना पड़ता था। हर यात्रा में पीठ पीछे अरबी भाषा में बातें सुनकर मैं विस्फोट या चाकू घोपने की आशंका में सहमकर सिकुड़ जाता था। जब बेंजामीन नेतन्याहू और उनकी पार्टी सत्ता में आए तो आतंकी हमलों की संख्या घटने लगी। यहां तक कि न होने के बराबर हो गई। नेतन्याहू सरकार की सख्त कार्रवाइयों ने ‘आजादी के मुजाहिदीनों’ की हिम्मत तोड़ दी। यहूदियों पर छिटपुट हमलों में कभी अंतराल नहीं आया। लेकिन वह हमले देश की रोजमर्रा जिंदगी को विशेष रूप से प्रभावित नहीं कर पाए। सब लोग सामान्य जीवन जीते रहे, काम करते रहे, पढ़ते रहे, मनोविनोद के कार्यक्रमों का आनंद लेते रहे, ऐश करते रहे। आतंकवाद से लोगों की जानें जाती रहीं, लेकिन सड़कों की दुर्घटनाओं की तुलना में भी कहीं कम। ‘हमास’ ने इज़रायल की स्थिति को अस्थिर करने में कोई कसर न छोड़ी। इज़रायल से अपने दावों का बल बढ़ाने के लिए ‘हमास’ ने हमारे देश पर बार-बार रॉकेटों की बारिश बरसाई। कई बार तेल अवीव पहुंचना भी असंभव हुआ। रॉकेट हमलों के कारण ट्रेनों और बसों की आवाजाही बंद हो जाती थी तथा विश्वविद्यालय में क्लासें रद्द कर दी जाती थीं।
तेल अवीव विश्वविद्यालय के शैक्षणिक भवनों में हर जगह विशेष पोस्टर लगे हैं जिन पर लिखा है कि रॉकेट हमले के समय नज़दीकी सुरक्षित आश्रय कहां स्थित है। ऐसे पोस्टर आपको सिनेमा घर, शॉपिंग मॉल, रेलवे स्टेशन, प्रदर्शनी जैसे हर सार्वजनिक स्थल में मिलेंगे।इज़रायली सेना के हाथों मुंहतोड़ जवाब पाकर आतंकवादी संगठन अगले दो-तीन सालों के लिये चुप हो जाते थे तथा रॉकेटों का भंडार भरने में व्यस्त हो जाते थे। यह परिस्थिति अस्वभाविक और असामान्य अवश्य थी, लेकिन यहां की सरकार को भयावह और असह्य नहीं लगती थी। यह बात विरोधाभास लग सकती है, पर मनुष्य हर स्थिति का आदी हो जाता है, चाहे वह जान गंवाने का दैनिक ख़तरा क्यों न हो। मिसायल विरोधी ‘आयरन डॉम’ सिस्टम ठीक से चल रही थी, लोग सुरक्षा के नियमों का पालन कर रहे थे और यहां के अधिकतर लोग मान गए कि क्रूर और हिंसक ही सही मगर बलहीन गुंडों के घेरे में रहना पड़ेगा।
अपनी स्थापना के बाद ही इज़रायल ऐसे शत्रुओं से घिरा हुआ युद्धरत देश बना जिनकी प्रचलित विचारधारा में मौत को प्रधानता दी जाती है, जब्कि इज़रायल वासियों का प्रमुख मूल्य जीवन है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक – हर तरह की समस्याओं के बावजूद जीवनानंद, जीवन के लिये उत्साह और आशावाद इज़रायली नागरिकों के मुख्य गुण रहे हैं।
इज़रायली सड़कों पर सेना की वर्दी पहने, हाथों में हथियार लिये हुए युवकों-युवतियों का घूमना एक साधारण सी वास्तविकता है, जिसपर विदेशी पर्यटकों को छोड़कर कोई भी ध्यान नहीं देता। ये बच्चे या तो फ़ौजी कैंप जा रहे हैं या छुट्टी पाकर कैंप से घर लौट रहे हैं। यह लो, एक नाज़ुक लड़की चल रही है जिसकी पीठ पीछे एक बंदूक लटक रही है। लड़की बंदूक से थोड़ी लंबी है। हां, लड़कियां भी सेना में भरती होती हैं। और उनकी मरज़ी कोई नहीं पूछता। यह उनका कर्तव्य है, कानून के अनुसार। सम्मानजनक अधिकार भी है, मगर कर्तव्य ही है।
विश्वविद्यालय में काम शुरू करते ही मुझे छात्रों-छात्राओं की सैनिक सेवा को लेकर एक समस्या का सामना करना पड़ा। बात यह है कि सेना में तीन साल (लड़कियां 2 साल) सेवा करने के बाद भी सेना के साथ अधिकतर युवकों-युवतियों का संबंध बहुत सालों तक बना रहता है। साल में कई बार उन्हें सैनिक प्रशिक्षण के लिये फ़ौजी कैंपों में बुलाया जाता है ताकि वे सैन्य कौशल न खोएं और ज़रूरत पड़ने पर देश की रक्षा करने में काम आएं। उन्हें कभी दो-तीन दिन, तो कभी दो-तीन सप्ताह के लिये बुलाया जाता है। इससे उनका अकादमिक प्रदर्शन बुरी तरह प्रभावित होता है, वांछित विकास में रुकावट पड़ती है। कभी सैनिक प्रशिक्षण शैक्षणिक सत्र के आरंभ में, कभी अंत में, तो कभी परीक्षाओं की अवधि में पड़ता है। इसके कारण कुछ छात्र विवश होकर अपनी पढ़ाई की समाप्ति अगले साल तक टाल देते हैं। मैं हर संभव कोशिश करता हूं कि ऐसे छात्रों की सहायता करूं। उनके पढ़ाई में लौटने के बाद मैं उनके साथ अलग क्लासें लगाता हूं ताकि छूटी हुई जानकारी की भरपाई हो सके। कुछ छात्र हिंदी की पाठ्य-पुस्तक लेकर फ़ौज में जाते हैं और फ़ुर्सत में उसका स्वयं अध्ययन करते हैं। लेकिन सब को ऐसे मौके हाथ नहीं लगते। व्यवस्थित पढ़ाई से जो समय छीन लिया गया है उसके कारण छात्रों को अपूर्णीय क्षति पहुंचती है। यह वह दाम है जिसे इज़रायली युवाओं को अपने जीवन और स्वतंत्रता की ख़ातिर देना पड़ता है।
1994 में रूस से इज़रायल आने से पहले ही मुझे मालूम था कि इज़रायल की भूमि पर शांति आने में बहुत समय लगेगा। संकट जल्दी टलनेवाला नहीं था। स्पष्ट था कि हमारे पड़ोसी देशों के शासक अपनी गहरी समस्याओं से अपने नागरिकों का ध्यान भटकाने के लिये ‘इज़रायली कब्ज़े’ का ढंढोरा पीटते रहेंगे। लेकिन पूरे पैमाने के युद्ध का ख़तरा मुझे असंभव लग रहा था। मेरा विचार था कि 1948, 1967 और 1973 की लड़ाइयों में मुंह की खाने के बाद अरब देश समझने लगे कि इज़रायल को पछाड़ना उनके बस के बाहिर है, और उन्होंने इसे मिटाने का सपना छोड़ दिया। इस लिये बड़ी जंग की आशंका मुझे नहीं थी।
मगर बड़ी जंग आ ही गयी। ऐसे आई कि शुरू में हमने इसे ठीक से नहीं पहचाना। हम यह तक नहीं समझे कि असल में हुआ क्या। शुरू में ऐसा प्रतीत हुआ कि गाज़ा के कट्टरपंथियों को एक और मनोरोगी संकट हुआ। पिछले बरसों में भी कई घंटों के अंदर हज़ारों रॉकेट हमारी तरफ़ दागे जाते थे। इज़रायली सेना के पास इन मानसिक रोगियों को शांत करने के लिये हमेशा काफ़ी मात्रा में समुचित दवाइयां मिल जाती थीं। लेकिन 7 अक्टूबर को परिस्थिति एकदम अलग थी। जब ‘हमास’ के ढावे का खुलासा हो गया तो पता चला कि यह एक मामूली आतंकी घटना नहीं थी, बल्कि था देश बरबाद करने और जनता का सर्वनाश करने का वहशी प्रयत्न। गाज़ा के समीप वाली बस्तियों और शहरों में जो विकराल नरसंहार हुआ उसे देखकर रौंगते खड़े हो जाते हैं। वहां बच्चों और औरतों की जो नृशंस हत्याएं की गईं, उन्हें देख कर तपे तपाए दिग्गज डॉक्टरों को भी सिहरन होने लगती है। और जब प्रधान-मंत्री नेतन्याहू ने घोष्णा की कि ‘दुश्मनों ने हमारे ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ा’, तो इसमें किसी को संदेह नहीं रहा।
शैक्षणिक वर्ष अभी कुछ ही दिनों में शुरू होनेवाला था। शिक्षकगण और विद्यार्थीगण पढ़ाई के लिये अंतिम तैयारियां करने में लगे हुए थे। तब अचानक जंग छिड़ गई, जिसने सब की योजनाओं और कार्यक्रमों को उलट-पुलट कर दिया। स्पष्ट हुआ कि पढ़ाई का आरंभ स्थगित किया जाना पड़ेगा। इसके कई कारण थे। एक तो इज़रायल की तरफ़ रोज़ सैंकड़ों रॉकेट दागे जाते थे जो तेल अवीव और यरुशलम तक पहुंचने की क्षमता रखते थे और जिनका निशाना निहत्थे नागरिक ही थे। ऐसी हालत में प्रतिदिन विश्वविद्यालय के लिये यात्रा करना अपनी जान बाज़ी में लगाने के बराबर था। और दूसरी वजह सामान्य लामबंदी की स्थिति थी। लामबंद सिपाहियों में हज़ारों छात्र-छात्राएं थे। हमें पूरा विश्वास था कि शत्रुओं का पराजय होगा ही। सवाल बस यही उठता था कि यह कब होगा? कितनी देर के लिये शैक्षणिक वर्ष को स्थगित करना पड़ेगा? युद्ध ने पढ़ाई की संभावनाओं को धूमिल कर दिया। पहले निश्चय हुआ कि एक महीने की मोहलत लेंगे। पिछले बरसों का अनुभव कहता था कि ‘हमास’ के आतंकवादियों को लगाम लगाने के लिये एक महीने से ज़्यादा समय दरकार नहीं होगा। लेकिन अबकी बार बंदियों को रिहा कराने के लिये हमारी सेना गाज़ा के भीतर घुस गई। और रिहायशी इलाकों में आबादी को बचाने के लिये फ़ौज की कार्रवाई धीमी पड़ गई। विश्वविद्यालयों का प्रशासन दुविधा में पड़ा कि क्या करें – युद्ध में जीत के इंतज़ार में शैक्षणिक वर्ष को रद्द कर दिया जाए या सेना से मुक्त विद्यार्थियों के साथ क्लासें लगाई जाएं? तो प्रशासन ने पढ़ाई का आरंभ एक और महीने के लिये टाल के, हर सत्र में दो-दो सपताह काट के शैक्षणिक वर्ष शुरू करने का फ़ैसला किया। इस में कोई संदेह नहीं था कि ऐसी हालत में शिक्षा की गुणवत्ता से समझौता करना पड़ेगा। इस तरह वि.वि. के कपाट ढाई महीने के विलंब के बाद 31 दिसंबर को खुल गए।
लामबंद छात्रों को मोर्चे से लौटने के बाद विशेष क्लासें लगाने का प्रबंध किया गया, परीक्षाओं में राहत और विशेषाधिकार मिले। इस तरह युद्ध से उन्हें जितनी क्षति पहुंची उसकी आंशिक ही सही पूर्ति हो सकी।
लेकिन कुछ ऐसी क्षति होती है जिसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती। अक्टूबर में तेल अवीव वि.वि. में उन छात्रों और अध्यापकों के नाम प्रकाशित किये गए जिन की हत्या 7 अक्टूबर के नरसंहार में की गई थी। जंग के सब महीनों के दौरान इज़रायल के सैंकड़ों जवानों और अफ़सरों के नाम प्रकाशित किये जाते रहे हैं जो जंग में शहीद हुए। अधिकतर जवान 19-22 साल के थे। अभी बच्चे ही थे। उन में से बहुत से युवक पढ़ाई छोड़ के मोर्चे पर गए हैं और कभी वापस नहीं आएंगे। हर बार शहीदों के नाम पढ़ते समय मेरे मन में क्षोभ होता है कि कहीं इस लंबी सूची में अपने किसी छात्र का नाम पढ़ने को मिले…
मुझे इस बात की शंका थी कि इस वर्ष हिंदी सीखने कोई नया छात्र न आए। लेकिन मेरी दुश्चिंताएं निर्मूल सिद्ध हुईं। सात लड़कियां आईं। ज़्यादा नहीं, मगर आई तो हैं। मगर एक महीने की पढ़ाई के बाद युवाल नाम की उनमें से एक लड़की लामबंद हुई। मेरे सब छात्रों में से पहले साल की युवाल और तीसरे साल का गाइ सेना में गए। गाइ वैसे युद्ध के पहले दिनों से ही विश्वविद्यालय की कक्षा की जगह सैनिक कैंप में रहा। मैं आप को इन दोनों की कहानी सुनाऊंगा।
दोनों को हिंदी सीखने की प्रेरणा भारत यात्रा के दौरान मिली थी। इस यात्रा की यादें साझा करते समय उन दोनों की आंखों से जो प्रकाश उत्पन्न होता है वह देखते ही बनता है।

24 साल की दुबली-पतली सी सुडौल युवती युवाल ने शुरू ही से हिंदी सीखने की सच्चे दिल से रुचि प्रदर्शित की। पढ़ाई के एक महीने बाद जब उसे सेना में लामबंद किया गया, तो उसने आश्वासन किया कि फौज में भी पढ़ती रहेगी। पता चला कि वह अपने इस इरादे को लागू कर पाई। फुर्सत में वह पाठ्य-पुस्तक पढ़ा करती थी और विश्वविद्यालय की कक्षा में हुई क्लासों की वीडियो रिकॉर्डिंग देखा करती थी। इस तरह जब उसे सेना से छुट्टी मिल गई और वह पढ़ाई के लिए लौट आई तो खोए हुए पाठों की जानकारी को पूर्णता प्रधान करना बहुत मुश्किल न था। परीक्षा तक उसे जो पूरे तीन सप्ताह बचे हम हर सप्ताह तीन-तीन बार मिले। जिस रुचि और दिल्लगी से वह पढ़ रही थी और पढ़ने में जिस तेजी से तरक्की कर रही थी उसे देखकर बड़ा मजा आया। सच पूछिए तो उसके लामबंद होने की खबर मैंने बड़ी उलझन में सुनी थी। अरे, यह नाजुक लड़की और योद्धा? लेकिन जब वह वर्दी पहने और मशीन-गन लिए विश्वविद्यालय में आई तो मेरे सब संदेह हवा हो गए। संदेह की जगह गहरे आदर की भावना ने ली। मैंने सोचा कि वही लड़की और उस जैसे हजारों युवक-युवतियां हम सब की रक्षा कर रहे हैं; जीने, पढ़ने, काम करने, घर बसाने के हमारे अधिकारों को सुरक्षित कर रहे हैं। वे ही हम लोगों और दुश्मनों के बीच एक अभेद्य प्राचीर बनकर खड़े हो गए हैं। युवाल को पहले सत्र की पढ़ाई समाप्त करने और परीक्षाएं देने के लिए फौज से छुट्टी तो मिल ही गई है। लेकिन आगे दूसरे सत्र में क्या होगा? इसका उत्तर किसी के पास नहीं है।
बहुत संभव है कि यह फिर से सेवा में भर्ती हो जाएगी। क्योंकि देश के उत्तर में ईरान से समर्थित ‘हिज़्बुल्ला’ के गुंडो से तेज झड़प अभी शेष है। फ़िल्हाल यह गुठी सुलझ नहीं पा रही है। तो ‘हमास’ का पराजय सिर्फ आधी लड़ाई की समाप्ति के बराबर होगा।

मेरे तीसरे साल के छात्र गाइ ने पढ़ाई में लौटने से पहले मोर्चे पर पांच महीने गुजारे थे। बड़ी संभावना है कि आने वाले दिनों में फिर उसे अपनी सैनिक जिम्मेदारी संभालनी पड़ेगी। एक बार मेरे साथ बातचीत में उसने इस बात को स्वीकार किया कि हमारे विभाग में शेष विषयों में से हिंदी भाषा को वह सबसे अधिक महत्व देता है। और यह सिर्फ बातें नहीं। वह वास्तव में पढ़ने में तल्लीन है और हिंदी का उसे असली शौक है। और पिछले दो सालों के अंदर उसे बड़ी उपलब्धियां प्राप्त हुईं। उसकी मेहनत और प्रतिभा रंग लाई। गाइ गंभीर और विचारशील आदमी है। ऐसे छात्रों को पढ़ाने में बड़ा मजा होता है। सेना में वह अफ़्सर है। इसका मतलब है कि दूसरे छात्रों की अपेक्षा उसे सैनिक प्रशिक्षण में अधिक समय व्यतीत करना होता है। अतः दूसरों की अपेक्षा अधिक पाठ छोड़ने पड़ते हैं। लेकिन इससे उसका शैक्षणिक प्रदर्शन बुरी तरह प्रभावित नहीं होता। उसकी गिनती हमारे विभाग के श्रेष्ठ विद्यार्थियों में होती है। युद्ध छिड़ जाने से एक सप्ताह पहले उसकी शादी हुई थी। मगर हॉनीमून मनाने और भविष्य के ख़्वाब बुनने की बजाय उसे वर्दी पहनकर अपनी जान को जोखिम में डालना पड़ा।

7 अक्टूबर युद्ध शुरू होने के बाद मेरे दिमाग में हिंदी सीखने की परिभाषा और लक्ष्य बड़ी हद तक बदल गए हैं। पिछले वर्षों में छात्रों को और मुझे भी हिंदी की जानकारी साहित्य, धर्म, परंपराएं, कलाएं जैसे संस्कृति के विभिन्न पहलू समझने का मुख्य माध्यम लगती थी। अरबों के उग्रवाद के विरुद्ध जंग ने याद दिलायी कि हम कितनी जटिल और हिंसक दुनिया में रहते हैं। इस मुठभेड़ का वर्णन हिंदी मीडिया समेत सारी दुनिया के संचार माध्यमों ने विस्तार से किया। पता चला कि यह जंग भारत में भी आंतरिक विवाद का कारण बना। भारत में इजरायल के असंख्या पक्षकार हैं, लेकिन घृणा के प्रचारक भी कम नहीं। इसका कारण समझने के लिये हिंदी जानने की ज़रूरत होती है। भारत भी आक्रामक पड़ोसियों से घिरा है, और इसका हालिया इतिहास इनके विरुद्ध झगड़ों से भरपूर है। युद्ध और विवाद आजकल की पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण विषय बना हुआ है। हिंदी के अखबार और टीवी इस विषय को विस्तार से कावर करते हैं। स्पष्ट है कि हिंदी का अध्ययन सिर्फ संस्कृति के विषयों से सीमित नहीं हो सकता। मुठभेड़ और युद्ध, सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष की शब्दावली आधुनिक मनुष्य के शब्द भंडार का अभिन्न भाग है। इसलिए मुझे ख्याल आया कि हमारी युद्धरत विश्व के बारे में हिंदी में समाचार पढ़ने और सुनने के लिए एक पाठ्य-पुस्तक लिखूं। इस कोर्स का आधार अभी रखा जा चुका है। इसके पहले अध्याय का नाम ‘युद्ध की डायरी’ है। और यह पूरी तरह 7 अक्टूबर की जंग को समर्पित है। इसमें भारतीय पत्रकारों के मुंह से मुठभेड़ के पहले दिन से लेकर आज तक इसकी पूरी कहानी प्रस्तुत की जाएगी।
मेरा दिल बहुत चाहता है कि युवाल और गाइ के साथ दूसरे सब युवक-युवतियां इस जंग में हताहत न हों, अपनी पढ़ाई समाप्त कर लें, उनके बच्चे पैदा हो जाएं, साधारण शांतिपूर्ण जीवन जीएं। और भारत का प्राचीन धार्मिक विचार ‘वसुदेव कुटुंबकम’ हमारे विश्व के सब देशों और जनताओं में स्वीकृत और साकार बन जाए। और हम केवल शांति और प्रेम की भाषा सीखें।

— डॉ. गेनादी श्लोम्पेर
हिंदी शिक्षक
तेल अवीव विश्वविद्यालय, इज़रायल

डॉ. गेनादी श्लोम्पेर

मैं इज़रायल में रहनेवाला हिंदी शिक्षक हूं, तेल-अवीव वि.वि. के पूर्वी एशिया विभाग में कार्यरत। हिंदी में मेरे अनेक लेख और हिब्रू भाषा से हिंदी में अनुवाद छपे हैं।