कहानी

बड़ी भाबु

अस्सी बरस की है बड़ी भाबु आज। झुर्रीदार चेहरा, सांवला रंग, सफेद बाल, हाथों में दो-दो लाख से बनी पुरानी चूड़ियां,पैरों में चांदी के मोटे कड़ले पहने बड़ी भाबु का व्यवहार आज भी ठीक वैसा का वैसा ही है, जो आज से चौंतीस-पैंतीस बरस पहले था। बड़ी भाबु अपनी बहन राजकंवर के साथ आज भी उस छोटे से मकान में ही रहती है और दोनों बहनों में आज भी वही आपसी तालमेल, अपनत्व की भावना, प्रेम- प्यार है। राज कंवर छोटी उम्र से ही बड़ी भाबु की बहुत इज्जत, मान-सम्मान करती थी। बड़ी भाबु का कहना तो शायद राज कंवर ने टाला ही नहीं था। कभी-कभार बड़ी भाबु ने गुस्से में किसी बात पर यदि ऊंची आवाज़ में राजकंवर को कुछ कह-सुना, या डांट-फटकार भी दिया तो भी राजकंवर ने कभी त्योरियां नहीं चढ़ाई। बरसों से हम भाबु व राजकंवर के पड़ौसी रहे हैं, और आज भी हैं । पड़ौसी होने के कारण मैंने बड़ी भाबु और राजकंवर को बहुत ही नजदीक से देखा है, दोनों ही हमेशा से बहुत ही शांत हैं,सहज हैं और बहुत ही व्यवहार कुशल भी। दोनों बहनें एक ही घर में ब्याही थी।बड़ी भाबु के स्वयं की कोई संतान नहीं थी और उनके पति सेना में हवलदार थे। बहुत बरस पहले  एक आतंकी हमले में वे शहीद हो गए थे। इधर, राज- कंवर के पति भी बहुत बरस बीते एक एक्सीडेंट में मारे गए थे । राजकंवर के तीन बेटियां हैं-छुटकी, भानु और प्रिया। बड़ी भाबु और उनकी बहन राजकंवर दोनों ने अपने पतियों की मृत्यु के बाद बहुत मेहनत की, और सबको अच्छे घरों में ब्याह दिया, आज उनके दोहते-दोहितियां भी हैं। पतियों की मृत्यु के बाद दोनों बहनों ने एक साथ ही रहकर जीवनयापन करने की ठानी, जिम्मेदारी का बोझ जो उनके कंधों पर आ पड़ा था। बड़ी भाबु के पति जब सेना में थे, तो परिवार चलाने में कभी इतनी मशक्कत का सामना बड़ी बाबु को नहीं करना पड़ा था। राज कंवर के पति एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे, उनके इस संसार से विदा हो जाने के बाद तीन बेटियों के लालन-पालन की संपूर्ण जिम्मेदारी राज कंवर के साथ बड़ी भाबु पर भी आ पड़ी। दुनिया में उन दोनों बहनों का और कोई न था।बड़ी भाबु को पति की मृत्यु के बाद सेना से हालांकि कुछ पेंशन मिलती थी, लेकिन बहन राजकंवर की तीन बेटियों के साथ घर खर्च चलाना बहुत मुश्किल हो रहा था। बेटियों को पढ़ाना-लिखाना भी था। इसलिए दोनों ने कुछ समय तक एक रईस के घर में मेड तक का काम किया। इससे दोनों बहनों व तीन बेटियों का गुजर-बसर ठीक-ठाक चल रहा था, लेकिन कुछ समय बाद वह रईस अपने परिवार के साथ विदेश चला गया और बड़ी भाबु और राज कंवर का मेड का काम छूट गया। नौबत फाकाकशी की आ गई थी। पेंशन इतनी कम थी कि दो जून की रोटियां जुटाना भी मुश्किल हो गया था। मुझे याद आता है तब मैं पन्द्रह-सोलह साल का रहा होऊंगा, बड़ी भाबु तब भी मुझसे उतना ही प्यार करती थी, जितना कि आज। तब बड़ी भाबु हमारे घर अक्सर आती-जाती थी, विशेषकर वह मुझे बहुत प्यार करती, आशीर्वाद देती, खूब लाड़ -प्यार करती और बहुत बार मेरे लिए खाने-पीने के लिए कुछ न कुछ बचाकर लाती। उनके साथ दो पल बैठकर मुझे बहुत अच्छा महसूस होता। मुझे याद आता है राज कंवर की बेटियां धीरे धीरे बड़ी हो रही थी, और मेड का काम छूट जाने के बाद इधर

घर का खर्च भी लगातार बढ़ रहा था। इधर बेटियों को पढ़ाने-लिखाने का खर्च, घर का खर्च, स्वयं का खर्च। कुछ समय बाद दोनों बहनों ने एक निजी शैक्षणिक संस्थान में हास्टल में मेड का काम ज्वाइन कर लिया था। दोनों बहनें उस संस्थान में लड़कियों के हास्टल में मेड का काम करती। मैस में खाना बनातीं और यहां तक कि हास्टल की लड़कियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उन पर थी। संस्थान इंचार्ज ने दोनों बहनों की ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, सरलता-सहजता के कारण उनको रहने के लिए एक छोटा सा कमरा भी अलाट कर दिया। बड़ी भाबु और राज कंवर के कमरे में बमुश्किल रसोई का जरूरत का सामान था और मैंने देखा है कि उनके कमरे में दो चारपाइयां भी ठीक तरह से बिछाने की जगह भी नहीं थी। लेकिन दोनों बहनों ने अपनी कमाई से लोहे की चारपाईयां खरीद कर कमरे को सैट कर रखा था, ताकि सभी सदस्यों को सोने, विश्राम करने की जगह नसीब हो सके। बड़ी भाबु और राज कंवर ने लोहे की एक चारपाई के ऊपर दो चारपाइयां डालकर कमरे को ऐसे व्यवस्थित कर रखा था कि सभी सदस्यों के लिए वह कमरा पर्याप्त-सा लगने लगा था। कोने में उन्होंने रसोई का सामान सजा रखा था, दो कुर्सियां, एक ब्लैक एंड व्हाइट टीवी भी उन्होंने अपनी तनख्वाह से खरीद लिया था। बेटियों का एडमिशन भी उसी संस्थान में करवा दिया, जिसमें वे हास्टल मेड का काम करतीं थीं। दरअसल बड़ी भाबु और राज कंवर को उनके अच्छे व्यवहार को देखते हुए संस्थान मालिक द्वारा बच्चों को पढ़ाने के लिए रियायत दी गई थी।

हास्टल में मेड का काम करने से जो तनख्वाह उन्हें मिलती थी,उसी से तीनों बेटियों की शादी भी खूब धूमधाम से की। परिवार का खर्च तनख्वाह और बड़ी भाबु की पेंशन से चलाया। मुझे याद है लगभग चौंतीस बरस तक लगातार उन्होंने संस्था को अपनी सेवाएं दीं। इन चौंतीस बरस में उन्होंने संस्था में रहते हुए ही तीनों बेटियों को अच्छे घरों में ब्याह दिया। आज तीनों बेटियां बहुत खुश हैं और अपनी मां राज कंवर व बड़ी भाबु से बीच -बीच में मिलने,उनकी कुशल-क्षेम जानने उनके यहां चली आतीं हैं। संस्था में जब दोनों बहनों ने ज्वाइन किया था,उस समय हास्टल में 1200-1300 लड़कियां थीं। आज भले ही संस्था अनेक वित्तीय संकटों का सामना कर रही है, हास्टल, स्कूल, कालेज में बच्चों की संख्या भी बहुत कम रह गई है। लेकिन बड़ी भाबु और राज कंवर के संस्था के प्रति त्याग, उनके असीम समर्पण, ईमानदारी के चलते उनको संस्था का हिस्सा बनाकर रखा हुआ है, हालांकि संस्था ने अनेक कर्मचारियों की हमेशा हमेशा के लिए छुट्टी कर दी थी। आज बड़ी भाबु, राज कंवर दोनों बूढ़ी हो गई। काया भी अब उनका साथ नहीं दे रही थी , लेकिन जितना काम उनसे संभव हो पाता है, आज भी पूर्ण समर्पित भाव से उसे करतीं हैं। दीपावली के दूसरे दिन(राम-राम) के दिन मैं बड़ी भाबु और राज कंवर से मिलने,उनका आशीर्वाद लेने पहुंच गया। अक्सर होली-दीवाली, रक्षाबंधन के त्योहार पर या किसी अन्य अवसर पर मैं बड़ी भाबु और राज कंवर से मिलने पहुंच ही जाता हूं क्यों कि उनकी यादें, उनका जीवन-संघर्ष देखकर मेरा मन मुझे झकझोरने लगता है। इसी घर(छोटे से कमरे) से मेरी कितनी स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। मुझे याद आता है कि होली दिवाली, रक्षाबंधन पर हम सभी के लिए बड़ी भाबु मिठाई का डिब्बा जरूर लातीं थीं। मेरे कोई सगी बहनें नहीं थी, इसलिए राज कंवर की बेटियों को ही अपनी बहनें बना लिया था। शादी नहीं होने तक हर साल तीनों बहनें मुझे राखी बांधने आती रही थी।मैं बड़ी भाबु व राज कंवर को बूढ़ी मां कहकर पुकारता रहा हूं। उनको याद करके अक्सर  मैं स्वयं को टटोलता हूं। एक प्रश्न उभरकर सामने आता है-क्या बड़ी भाबु , राज कंवर जैसी बूढ़ी मां की स्मृतियों को एक झटके से भुलाया सकता है ? आज जब हम बड़ी भाबु व राज कंवर (बूढ़ी अम्मा) से मिलने पहुंचे तो मुझे देखकर बूढ़ी अम्मा की आंखों में ख़ुशी के आंसू छलक आए। वे बोलीं -‘बेटा ! इस बार बहुत समय से मिलने आए। बेटा अब हम दोनों बूढ़ी हो गई हैं, समय बदल गया है, आजकल कौन किसे पूछता है ?’ मैंने प्रतिउत्तर में कहा -‘नहीं अम्मा ऐसी बात नहीं है। फौज में ड्यूटी होने के कारण मैं कभी-कभार ही त्योहार पर घर आ पाता हूं। इस बार दिवाली पर आपसे मिलने चला आया। मुझे आपका उस दिवाली पर सौंपा वो मिठाई का डिब्बा और आपका असीम स्नेह आज बरबस ही याद आ रहा था, और आज मुझसे रहा नहीं गया और मैं आपसे मिलने चला आया। आपका स्नेह मुझे यहां खींच लाया।’ बूढ़ी भाबु और राज कंवर अम्मा ने यह सबकुछ बड़े ही ध्यान से सुना और जब हम काफी देर हथाई के बाद अपने घर की ओर प्रस्थान करने लगे तो बूढ़ी भाबु ने मेरे हाथ में एक दौ सौ का नोट और राज कंवर अम्मा ने मिठाई का डिब्बा थमा दिया और आंखों में ख़ुशी के आंसू भरकर बड़ी भाबु मुझसे कहने लगी -‘ बेटा ! बूढ़े मायतों से मिलने आया करो, इस संसार में आपसी सौहार्द, मेल-मिलाप,प्रेम-प्यार और अपनत्व ही तो साथ चलता है, शेष तो सब मोह-माया ही है।’ मैंने मिठाई का डिब्बा और दौ सौ रुपए का नोट लिया और मैं अपनी माताजी के साथ अपने घर की ओर प्रस्थान कर गया। बीच थोड़े से रास्ते में मैं लगातार यह सोच रहा था कि आदमी का मन हमेशा बड़ा होना चाहिए, भले ही उसके पास लेने-देने के लिए कुछ हो या नहीं। बड़ी भाबु शुरू से ही गरीब परिवार से थी, परिवार में ज्यादा संसाधन मौजूद नहीं थे। लेकिन मुझे बड़ी भाबु से यह सीख मिली कि केवल और केवल धन-संपत्ति से ही मन व आत्मा कभी तृप्त नहीं होते हैं। आपसी सौहार्द, मेल-मिलाप, प्रेम-प्यार, सद्भावना ही वास्तव में सुखी जीवन की सच्ची राह है।

— सुनील कुमार महला

सुनील कुमार महला

फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड। मोबाइल 9460557355 [email protected]

Leave a Reply