कविता

सरोजों का उभरना भी !

सरोजों का उभरना भी, सूर्य के ओज से होता;
सरोवर का हृदय मंथन, उसे उद्गार से भरता !

समाधित जल समाहित चित, तरंगित सरोरुह करता;
रंगे पल्लव भंगिमा भव, दिवाकर रश्मि से देता !
समादर शशि है करता, ज्योत्सना जग जलधि देता;
जगा स्फूर्ति संवित धृति, सुगन्धित सुमन हर करता !

उरों में जो रही पीड़ा, किए क्रीड़ा वो मन भीना;
मिटाए तमिस्रा चलता, भरे मृदु भाव हर सीना !
सुवह लखि छवि कमल दल की, हृदय में कोई कह जाता;
‘मधु’ को माधुरी देता, भुवन को भाव प्रभु देता !

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडाa