संस्मरण

मेरी कहानी 52

स्कूल हम। रोजाना जाते थे और सारे टीचर जी जान से हम को पढ़ा रहे थे। विद्या प्रकाश हमारा स्ट्रैस दूर कर देता था। कोई ना कोई जोक सुनाता रहता और पढ़ाता भी रहता। मास्टर जगदीश से उन की खूब पटती थी और दोनों जब भी मिलते एक दूसरे पर विअंग कस्ते रहते जिसको हम भी मज़े से सुनते। मास्टर जगदीश सितार बहुत अच्छी बजाते थे और जब कभी स्कूल के हाल में कोई प्रोग्राम होता तो मास्टर जी सितार जरूर बजाते जिस को सुन कर मज़ा आ जाता। क्लास में जब होते तो ऐसा पढ़ाते कि हमें सब समझ आ जाता। मास्टर मूल राज के पास तो मैं और जीत ने टयूशन रख ली थी और उस के घर जाया करते थे।

इस के इलावा किताबों की दुकानों पर पिछले दस सालों के सवाल और उन के जवाब लिखे हुए मिलते थे। गैस्स पेपर मिलते थे। एक दुसरे से बातें करते कि यह सवाल आ सकते हैं ,वोह सवाल आ सकते हैं। चाहे कोई हुशिआर विद्यार्थी था या ऐवरेज सभी कुछ न कुछ खरीद रहे होते । कई गैस्स पेपर तो सौ फी सदी की गरंटी देते थे कि यह ही सवाल इम्तिहान में आएंगे। किताबें बेचने वालों की चांदी हो रही थी। कुछ गैस्स पेपर तो ऐसे मिलते थे जो सील्ड होते थे जैसे वोह सवाल ही इम्तिहान में आयेँगे. हमारी उम्र ही ऐसी थी कि हम को ऐसी समझ ही नहीं थी कि यह किताबें बेचने वाले हम से पैसे बना रहे थे।

स्कूल से वापस आ कर हम मस्ती भी बहुत किया करते थे और जीटी रोड पर हो रहे मजमें देखने चले जाते थे, इनमें एक तो मेरा बचपन का दोस्त विजय ही निकला था जिसके बारे में मैं पहले लिख चुक्का हूँ। यह मजमे वाले लोग इतने हुशिआर होते थे कि बातों बातों में लोगों को बेवकूफ बना कर बहुत पैसे कमा लेते थे। इनमें कुछ के बारे में लिखना चाहूंगा। एक तो होता था प्रेम सिंह जो अपने आप को बाबा साँपों वाला कहलाता था. शूगर मिल के सामने बहुत खुली जगह होती थी और लोग भी जल्दी इकठे हो जाते थे। बाबा प्रेम सिंह की दाहड़ी बहुत लम्बी होती थी और सारे कपडे गेरूए रंग के होते थे जिस से वोह धार्मिक दिखाई देता था। नीचे जमींन पर उस ने बहुत सी छोटी छोटी शीशीआं रखी हुई होती थी जिन में चार पांच इंच लम्बे छोटे छोटे मरे हुए सांप रखे होते थे। वोह हर बीमारी की दवाई बेचता था और उस की बातों में ऐसा जादू था कि लोग दवाई खरीद लेते थे।

मजमा शुरू होने से पहले वोह हरे पत्तों जिन को वोह पहले ही ला कर रखता था हाथों से मलता, जिस में से रस निकलता और उस रस को वोह पानी के जग में डाल देता। इसके बाद वोह अपना लैक्चर शुरू कर देता और लोगों को कहता ,” देखो जी ! मैं तो सिर्फ गरीबों के लिए ही दवाई बेचता हूँ , आमिर लोग तो सोने चांदी के कुश्ते भस्में खाते हैं लेकिन मेरी दवाई तो जड़ी बूटिओं से बनती है और सोने चांदी के कुश्ते भस्मों से कहीं ज़्यादा असरदार है”. वोह तब तक बातें करता रहता जब तक वोह जग में पड़ा पानी पत्तों के रस से हरी जैली न बन जाता। इस के बाद वोह उस जैली को जग से बाहर निकालता और लोगों को दिखाता। लोग देख कर हैरान हो जाते। फिर वोह लोगों को बहुत से पेपर और पैंसलें देता और दवाई का नुस्खा लिखाता। वोह नुस्खा लिखाने के बाद उन को किन किन बृक्षों की जड़ों में कितने महीने रखना था , लिखाता। इस के बाद उन को सुखाना, फिर माम्जिस्ते में कूटना और दवाई तैयार, फिर उस को खाने का तरीका बताना।

यह सारा कुछ कहने के बाद आधे लोग तो वैसे ही कन्फ्यूज़्ड हो जाते। फिर आखिर में वोह कहता कि सभी लोग इतनी मिहनत नहीं कर सकते, इस लिए मैंने पहले से ही दवाई तैयार की हुई है. इस के बाद वोह बैग से बहुत से दवाई के लफाफे निकालता और कीमत एक या दो रुपया बताता। बहुत लोग खरीद लेते। ऐसे ही यह बाबा रोज़ लोगों को ठगता। एक दिन हम सभी दोस्त टाऊन हाल में घूम रहे थे कि मेरी नज़र टाऊन हाल की हैज्ज् के नज़दीक एक पान के पत्तों की शकल वाली बड़ी बेल पर पडी। मैंने कहा ,”यह तो वोही बेल लगती हैं जो बाबा साँपों वाला इस से जैली बनाता है ” जीत ने बहुत सी बेल तोड़ ली और हम अपने कमरे में ले आये। हमने उस का रस निकाला और पानी में डाल दिया। आधे घंटे में वोह जैली बन गई। इस जैली को देख देखकर हम हैरान होते रहे।

आगे जा कर होता था मर्दों की गुपत बिमारिओं का माहिर। यह शख्स इतना हुशिआर होता कि अच्छे अच्छे भले जवान लड़कों को ऐसी ऐसी बातें कहता था कि वोह अपने आप को बीमार समझने लगते थे और डरने लगते थे कि वोह मर्द कहलाने के काबिल नहीं थे , और डर के मारे उस से दवाऐं खरीद लेते थे। भजन और जीत उनसे इतनी बातें करते थे कि वोह शर्मिंदा हो जाता था और मिनतें करने लगता था कि हम उस की रोज़ी रोटी को खराब ना करें। ऐसे और भी बहुत लोग होते थे जो लोगों को ठगते थे। कभी कभी पुलिस वाले आ कर उन को वहां से जाने के लिए कह देते तो वोह चले जाते लेकिन कुछ मिनट बाद फिर आ जाते। पुलिस की भी यह ऐक्टिंग ही होती थी क्योंकि पुलिस को यह पैसे दे देते थे।

कभी कभी होता था अपने आप को कहलाने वाला एक हकीम। यह शलवार पहनता था, तुर्रे वाली पगड़ी के बीच में होता था पाकिस्तानी कुल्ला जो ऊपर को कश्ती जैसा दिखाई देता था। इस के सामने एक कपडे पर रखी होती थी पचास साठ जड़ी बूटीआं। जब लोग इकठे होने शुरू हो जाते तो वोह एक अखबार में एक एक जड़ी बूटी डालता , उस का नाम बताता, उस के शरीर को होने वाले फायदे बताता और फिर दुसरी जड़ी बूटी डालता , उस का नाम और फायदे बताता। इस तरह वोह सारी जड़ी बूटीआं अखबार में डालता। अब इन बूटिओं से दवाई बनाने का ढंग बताता। आखिर में रैडी मेड दवाई के पैकेट निकालता जो लोग खरीद लेते।
इन लोगों को हम रोज़ाना देखते ही रहते थे।

अपने कमरे में आ कर हम स्कूल का काम करने में वयस्त हो जाते और रात को आठ नौ वजे प्रभात होटल को खाना खाने के लिए चल पड़ते। होटल में हमने अपनी अपनी घर के देसी घी की पीपीआं रखी हुई थीं जिन को ताला लगा कर रखते थे। यह पीपीआं गोल गोल डालडा घी वाली होती थी जिन पर एक खजूर के दरख्त की फोटो होती थी। हम खुद ही ताला खोल कर उन होटल वालों को घी दे देते थे और वोह तड़का लगा देते थे। होटल का खाना बहुत स्वादिष्ट होता था। यह होटल दो भाईओं का होता था जो बहुत हंसमुख होते थे। खाना खा कर वापस अपने कमरे में आ जाते और देर रात तक पड़ते रहते। पड़ते पड़ते हमारा मन कभी कभी गन्ने चूपने को हो आता और कमरे को ताला लगा कर बाहर निकल पड़ते। जीटी रोड सारी गन्ने के छकड़ों और ट्रक्कों से भरी होती थी जो शूगर मिल को जाते थे। छकड़ों और ट्रक्कों से गन्ने हम खींच लेते और कमरे में ले आते और देर रात तक चूपते रहते और गप्पें हांकते रहते। कई दफा तो गन्ने बहुत जमा हो जाते और रविवार को हम यह गन्ने रस निकालने वाले वेलने पर ( रस निकालने वाली बैलों से चलने वाली मशीन ) ले जाते और दो बाल्टीआं रस की भर के ले आते और सभी विद्यार्थिओं को पिलाते।

इम्तिहान के दिन नज़दीक आ रहे थे। पैराडाइज़ में फिल्म लगी हुई थी “नया दौर “. फिलम देखने को सब का मन कर रहा था लेकिन इम्तिहान की वजह से इतना हौसला भी नहीं पड़ता था। रोज़ रोज़ हम फिल्म की बात करते लेकिन जाने से हिचकचाते। एक रात को जीत कहने लगा ,” देखो भई ! अगर तो फिल्म देखनी है , टॉस कर लो , जाने या ना जाने का फैसला हो जाएगा, झूठ नहीं बोलना चाहिए ,मन तो सब का फिल्म देखने को करता है “. फिर जीत ने जेब से एक रूपया निकाला और बोला ,हैड जाना ,टेल नहीं जाना। इस के बाद उस ने रुपैया ऊपर को फेंका। जब रुपया ज़मीं पे गिरा तो वोह आया टेल यानी नहीं जाना। मन में सभी उदास हो गए। जीत बोला ,”नहीं भई ,एक दफा फिर फैंकते हैं “जीत ने फिर से फैंका तो फिर आ गिया टेल। सभी चुप कर गए। क्योंकि मन तो सभी का फिल्म देखने को करता था और धियान भी फिल्म में ही था। जीत बोला ,” भई ऐसा करते हैं एक दफा फिर रुपैया फैंकते हैं ,यह फाइनल होगा ,इस के बाद बात खत्म ,जो होगा उसी तरह करेंगे।

उधर फिल्म का वक्त भी तकरीबन हो चुक्का था और जाने के लिए भी दस मिनट का वक्त चाहिए था। जीत ने रुपैया फेंका तो वोह आया हैड। बस फिर किया था ,उसी वक्त कमरा बंद करके दौड़ पड़े। कुछ ही दूर गए होंगे कि जीत का पैर फिसल गिया और सड़क के किनारे पड़े कीचड़ में गिर गिया जिस से उस का पजामा खराब हो गिया। जीत ने पजामा उतारा ,इकठा करके हाथ में पकड़ा और सिनीमे की ओर दौड़ पड़ा। हँसते हँसते हम भी दौड़ पड़े और सिनेमा पौहंच गए। टिकट लिए और फिल्म देख ली। इस बात को ले कर हम पता नहीं कितनी दफा हंसें होंगे। बहुत साल पहले जब हम जीत को उन की कोठी में मिलने गए थे तो इसी बात को याद करके बहुत हँसे थे ।

इम्तिहान से दो तीन हफ्ते पहले हम को स्कूल से छुटी हो गई और अब हमारे पास वक्त ही वक्त था। खूब पड़ते। पता नहीं कितनी दफा रिवाइज किया। एक दिन हम ने फिर मस्ती करने का प्रोग्राम बनाया। प्रोग्राम था जालंधर को जाना और तीन फिल्मे देखना। तीन से छै ,छै से नौ ,और नौ से बारह के शो देखना। जालंधर में उस वक्त बहुत सिनीमे होते थे। हम जालंधर को रवाना हो गए। जैसा जीत था ,वैसा ही उस का बाइसिकल था। जगह जगह उस का साइकल वेल्ड किया हुआ था ,न तो उस के बाइसिकल की ब्रेक थी ,ना ही फ्लाइवील काम करता था क्योंकि नया फ्लाइवील डालने के लिए पैसे लगते थे ,इसलिए उस ने फ्लाइवील को भी वेल्ड करा लिया था जिस से फ्लाइवील पीछे की ओर घूमता नहीं था। जीत के सिवा इस को कोई चला नहीं सकता था। क्योंकि हम ने जालंधर जाना था और रिस्की था क्योंकि जीटी रोड बहुत बिज़ी होती थी ,इस लिए हम दो साइकलों पर ही सवार हो गए। एक साइकल पर मैं और जीत और दूसरे पर बहादर। भजन उस दिन आया नहीं था। हम चल पड़े जालंधर की ओर। फगवारे से जलंधर बीस किलोमीटर है।

कौन सी फ़िल्में देखीं ,यह मुझे याद नहीं लेकिन पहले हम संत थिएटर पुहंचे और फिल्म देखी। छै वजे बाहर निकले और जियोती सिनमें की ओर भाग खड़े हुए। पहले हम ने छोले कुलचे खाए और टिकट ले कर सिनीमे हाल में घुस गए। फिल्म खत्म होने पर लक्ष्मी पैलेस की ओर भाग खड़े हुए। फिल्म देख कर बाहर निकले तो रात का एक बज चुक्का था। बाहर आ कर हम ने कुछ खाया और फगवारे की ओर वापस चल पड़े। जब चहेरु के नज़दीक पुहंचे तो बहादर के साइकल के टायर के नीचे कोई ईंट आ गई और टायर का पटाखा बोल गिया। आधी रात का वक्त और इस पर जीटी रोड पर ट्रक्कों की भरमार ,सामने से तेज़ लाइट आँखों को अंधी करती। यह हमारा भाग्य ही था कि मेरे साइकल के टायर हवा से टाइट थे। मेरे आगे बहादर बैठा और पीछे जीत बैठ गिया और साथ ही जीत पंचर हुए साइकल के हैंडल को एक हाथ से पकड़ कर ले जाने लगा। पहले पहले कुछ तकलीफ हुई ,फिर धीरे धीरे चलने लगे। तीन बजे हम अपने कमरे में पुहंचे और चैन की सांस ली और आते ही सो गए।

आज मुझे किसी भी फिल्म को देखने का शौक नहीं है चाहे कितनी भी बड़ीआ कियों ना हो. कैसी जवानी की उम्र थी वोह! जब भी फिल्म देखने जाते ,आते वक्त फिल्म की बातें करते आते ,कभी गोप, भगवान दादा और जॉनी वाकर की बातों को याद करके हँसते आते ,कभी धार्मिक और जादू की फ़िल्में देख कर उनकी बातें करते आते। कभी जीवन की बातें और कभी वी एम विआस की बातें करते। कभी शकीला और नंदा की बातें तो कभी माला सिन्हा और कामनी कौशल की बातें। माता पिता के सर पे मज़े , कितनी अच्छी ज़िंदगी दी थी हमारे माता पिता ने हमको, उनकी याद को झुक कर नमस्कार करता हूँ।

चलता………………

 

4 thoughts on “मेरी कहानी 52

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , यह लोग बहुत हुशिआर होते हैं और ऐसी बातें करते हैं कि लोग उन के जाल में फंस ही जातें है .इतने लोगों में दस पन्दरा ने दवाई खरीद ली तो उन के पैसे बन जाते हैं और फिर वहां से उठ कर कही और मजमा लगा लेते हैं .

  • विजय कुमार सिंघल

    आज की किस्त पढकर मज़ा आ गया भाई साहब ! मजमे वाले हमने भी खूब देखे हैं। अपनी बातों के जाल में फंसाकर लोगों को मूर्ख बनाते हैं।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , मेरा विचार है कि समय से सब कुछ बदल जाता है . जब उस समय फ़िल्में देखते थे तो बहुत मज़ा आता था लेकिन अब वोही फ़िल्में रबिश लगती हैं .किताबें पड़ने का मुझे भी शौक तो है लेकिन सिहत इजाजत नहीं देती किओंकि सर को तकलीफ होने लगती है .इस लिए ज़िआदा स्ट्रैस नहीं लेता .

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की क़िस्त में वर्णित सभी प्रसंग रोचक एवं प्रभावशाली हैं। बहुत अच्छे लगे। मैंने भी सं १९७० से आरम्भ कर बहुत फिल्मे देखी हैं। सन १९७५ में आर्य समाज के संपर्क में आने पर धीरे धीरे फिल्मो का शौक कम होता गया और पुस्तकें पढ़ने का बढ़ता गया। अब पिक्चर हॉल में जाना बिलकुल बंद है। घर पर टीवी में भी देखने का दिल नहीं करता। आपने मन लगाकर पढाई की, यह पढ़कर बहुत अच्छा लगा। हार्दिक धन्यवाद।

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