जो मजा बुद्धूजीवी होने में है, वो बुद्धिजीवी होने में कहाँ!
आज जब मैं तिवारी पान पेलेस पहुंचा तो सब कुछ बदला बदला नजर आया| सबसे पहले तो साईन बोर्ड पर निगाह गयी, वहां पान पेलेस की जगह पान मंदिर था| जहां पहले पेट निकाले एक बूढ़ा आदमी बैठे रहता था, वहां हनुमान जी की फोटो थी, | हमने पूछा कि कैसन तिवारी जी रातो रात ये परिवर्तन कैसे? तिवारी जी बोले, ऐसन है कि जैसा देश वैसा भेष| हमने कहा कि तिवारी जी देश में तो ऐसा कोई बदलाव नहीं आया है कि आप अपना भेष बदल लें? तिवारी जी बोले बस यही तो फरक है बुद्धिजीवियों और बुद्धुजीवियों में| बुद्धिजीवी बदलाव को तुरंत भांप जाते हैं और बदल जाते हैं| बुद्धूजीवी लकीर के फ़कीर बने रहते हैं|
तिवारी जी की दूकान भी बड़ी बड़ी नजर आ रही थी| उनके बड़े भाई भी दूकान में थे और एक हेल्पर भी दिख रहा था| हमने कहा कि जब फुरसत मिले तो अच्छे से समझाना| तिवारी जी बोले ऐसन है सुकुल महाराज चेहरा बदल जाने से न तो फितरत बदलती है और न ही दूकान का सामान बदलता है और सबसे बड़ी बात ग्राहक भी नहीं बदलते| बस कुछ भोले भाले लोग दुकान के नए कलेवर में फंस कर कुछ समय के लिए आ जाते हैं| अब इसी में जितना कमाना हो कामी लो नहीं तो दुकानदारी तो पुराने ढर्रे पर वापस आयेगी ही| चलिए, हम आपको समझाते हैं| इतना कहकर तिवारी जी ने बाजू की फल की दूकान के पिछवाड़े बिछी खाट पर चलने का इशारा किया| हम तो तिवारी जी की बुद्धिजीवता के ठीक उसी तरह कायल थे, जिस तरह आज माने-जाने वाले शिक्षाविद मानव संसाधन मंत्री की प्रतिभा के कायल हैंसो बिना न नुकुर उनकी बगल में जाकर बैठ गए| तिवारी जी बोले कल से नई राजधानी के पुरखोनी मुक्तांगन में राज्य सरकार का साहित्य सम्मेलन शुरू हो रहा है, आपको बुलाया है?
वैसे तो इतना सुनने के बाद हमको बहुत शर्म आनी चाहिए थी, पर न जाने क्यों हम उस समय बिलकुल बेशर्म हो गए| हमने कहा तिवारी जी, हमें क्यों बुलायेंगे? जब सरकारी नसबंदी में औरतें मर रही हैं, बच्चे अस्पताल में मर रहे हैं, सरकार वायदा करने के बाद भी किसानों का अनाज नहीं खरीद रही है, माओवादी सुरक्षा कर्मियों को मार रहे हैं, बस्तर में मलेरिया से देश के लिए जान देने वाले मर रहे हैं, स्कूलों में छोटे बच्चों के साथ बलात्कार हो रहा है, नकली दवाईयां लोगों की जान ले रही है, तब हम सरकार का विरोध करेंगे या सरकारी सम्मलेन में शामिल होंयगे| हम तो सरकार के कामों का विरोध कर रहे हैं| सरकार हमें क्यों बुलायेगी| और हमें बुलाती तो भी हम क्यों जाते? तिवारी जी ने हमें बहुत ही दयनीय नज़रों से देखा| बोले, सुकुल महाराज, आप उत्तेजित हो गए| प्रेक्टिकल होईये| आपने किसी बुद्धिजीवी को कंगाल देखा है? तिवारी जी अकसर हमें चक्कर में डालकर मुस्कराते थे, फिर मुस्कराने लगे, एकदम वही मुस्कराहट, बचवा, पान की दूकान नहीं चलावत, दुनिया को बैठकर देखत हैं! सच है, हम चकरा गए थे| हमने लेखक, कवि, शायर, नाटककार, कलाकार, यहाँ तक कि किसी किसी पत्रकार को भी कंगाल देखा था, पर किसी बुद्धिजीवी को कंगाल नहीं देखा था|
तिवारी जी फिर बोले, सुकुल महाराज अब दूसरी बात बताव, पैसा कहाँ से आवत है? यह दूसरी बार चक्कर देने वाली बात थी| पर, हम भी कम चतुर नहीं थे| हमने कहा पैसा तो तिवारी जी मेहनत से ही आता है| तिवारी जी ने बस हो हो नहीं किया पर हंसे उसी अंदाज में| बोले, फिर तो हम्माल को सबसे ज्यादा अमीर होना चाहिए| आप भी कल से गल्ला मंडी में लग जाओ, पीठ पर बोरे ढोते ढोते थोड़े दिन में अमीर हो जाओगे|
तिवारी जी ने हमें समझाया, मेहनत की कमाई से ठाठ नहीं होते, पत्रिका हो, चैनल हो या कंपनी हो, चलती तभी है जब सरकारी पैसा मिलता है| और इसमें लिखने वाले, काम करने वाले ठीक-ठाक/ अमीर जैसे दिखने वाले तभी बनते हैं, जब सरकारी पैसा मिलता है| हमारी आँखों के सामने हमारी और हमारे मित्रों के द्वारा चालू की गईं वे सभी पत्रिकाएं घूमने लगीं, जो चालू तो हुईं थीं पर सरकारी विज्ञापन के अभाव में न केवल बेमौत मर गईं थीं, पर, अपने साथ चालू करने वालों को भी मरा जैसा छोड़ गईं थीं| तिवारी जी ने जेब से साहित्य सम्मेलन का आमन्त्रण पत्र निकाला और बोले इनमें से एक का भी नाम बताईये, जो कंगाल हो, सरकार का विरोध करता हो, और उसे बुलाया गया हो| तिवारी जी मुस्कराए और बोले सुकुल महाराज जो मजा बुद्धूजीवी होने में है, वो बुद्धिजीवी होने में कहाँ!
तिवारी जी बोले अब हम ठहरीन व्यापारी| अब व्यापारी बुद्धूजीवी तो होते नहीं, इसलिए साईन बोर्ड बदल डारेन हैं| बाकी अन्दर माल सब वही है| अब ऐसन है महाराज, सरकार बदली है तो तरतीब तो बदलनी पड़ेगी न!
अरुण कान्त शुक्ला
गूढ़ लेखन अच्छा लगा पढ़ कर