ग़ज़ल “लक्ष्यहीन संधान न कर”
भौंहें वक्र-कमान न कर
लक्ष्यहीन संधान न कर
ओछी हरक़त करके बन्दे
दुनिया को हैरान न कर
दीन-धर्म पर करके दंगे
ईश्वर का अपमान न कर
मन पर काबू करले प्यारे
दिल को बेईमान न कर
जल-जंगल से ही जीवन है
दोहन और कटान न कर
जो जनता को आहत करदे
ऐसे कभी बयान न कर
जिससे हो नुकसान वतन का
ज़ारी वो फ़रमान न कर
नहीं सलामत “रूप” रहेगा
सूरत पर अभिमान न कर
— डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
बहुत सुन्दर रचना !