लघुकथा

बरगद की छाँव

सत्या मायके की देहरी पर बैठी अतीत के झरोखे से सब कुछ स्पष्ट देख रही थी, बेटे कैलाश की बातें दिल में शोर मचा रही थी ,” माँ रिश्तों को दिल से अपनाओ नहीं तो बुढापा कष्ट और अकेलेपन में बीतेगा।” वर्तमान में देखा तो रिश्तों के नाम पर दोनों हाथ खाली नजर आये।पति के न रहने पर बेटों और बहूओं पर अविश्वास रूपी धूल की चादर नजरों में ओढ खुद पर ही भरोसा रखने की झूठी दिलासा ने आज पोते पोतियों से भी दूर कर दिया था। सेवा करवाने के लिए बेटों के दिमाग में एक दूसरे के प्रति भरोसे की नींव तक हिला दी। जिदंगी भर मतलब के लिए रिश्तों को सीढी बना उमर गुजार दी।” सोच क्या रही हो जीजी , लो दवाई खाओ ना तो बीमारी कटेगी कैसे ?”
“कमलेश सोचना क्या ,बेटों के बीच गलतफहमी का जो बीज बोया था उसी का पेड बनता देख कलेजा छलनी हुआ जा रहा है ।”
“अरे जीजी ! तो अब तुम बरगद का पेड बनो और गलतफहमी की धूप में झुलसे हुए नन्हें नन्हें पौधों को ठंडी छांव देकर फलने फूलने दो ।”

संयोगिता शर्मा

जन्म स्थान- अलीगढ (उत्तर प्रदेश) शिक्षा- राजस्थान में(हिन्दी साहित्य में एम .ए) वर्तमान में इलाहाबाद में निवास रूचि- नये और पुराने गाने सुनना, साहित्यिक कथाएं पढना और साहित्यिक शहर इलाहाबाद में रहते हुए लेखन की शुरुआत करना।