सामाजिक

बच्चों के लिए फिल्में

हमारे समाज में मनोरंजन के अनेक साधन उपलब्ध हैं जिनमें सबसे प्रमुख साधन है फिल्म। अमीर गरीब, साक्षर निरक्षर हर कोई फिल्में देख कर अपना मनोरंजन कर सकता है। हमारे देश में हर साल अनगिनत फिल्मों का निर्माण होता है। जिनके ज़रिए करोड़ों  लोग अपना मनोरंजन करते हैं।

बच्चे किसी भी समाज का एक मुख्य अंग होते हैं। वयस्कों की तरह उन्हें भी मनोरंजन की आवश्यक्ता होती है। वह भी फिल्में देखना उतना ही पसंद करते हैं जितना बड़े। क्योंकी बच्चे ही आने वाले कल का भविष्य होते हैं। अतः यह आवश्यक है कि उन्हें इस तरह का मनोरंजन प्रदान किया जाए जो उनके मनोभावों के अनुकूल हो एवं उनके मनोविज्ञान पर बुरा असर ना डाले। बच्चों के लिए ऐसी फिल्मों का निर्माण हो जो खासकर उन्हें ध्यान में रख कर बनाई गई हों। जिनमें सीख और मनोरंजन का सही मिश्रण हो।

दृश्य श्रव्य माध्यम होने के कारण फिल्मों के ज़रिए बच्चों को बहुत कुछ सिखाया भी जा सकता है। जो उनके चरित्र निर्माण में सहायक हो सकता है। अतः बच्चों के लिए फिल्मों का निर्माण करते समय उनकी आयु पर विशेष ध्यान देना बहुत ज़रूरी होता है। एक अच्छी बाल फिल्म वह होती है जो ना सिर्फ बच्चों की जिज्ञासा को बढ़ाए बल्कि उनके बहुत से प्रश्नों का उत्तर दे सकने में भी सक्षम हो।

बच्चों की इसी आवश्यक्ता को ध्यान में रखते हुए देश के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने 11 मई 1955 में चिल्ड्रेंस फिल्म सोसाइटी का गठन किया। इसका उद्देश्य बच्चों के लिए मनोरंजक व ज्ञानवर्धक फिल्मों का निर्माण करना था। ह्रदयनाथ कुंजरू इसके पहले प्रेसिडेंट बने थे।

पिछले 52 सालों में चिल्ड्रेंस फिल्म सोसाइटी द्वारा कुल 114 फीचर फिल्म्स, 45 लघु फिल्म्स, 9 कठपुतली फिल्म्स 52 डाक्यूमेंट्री फिल्में बनाई हैं।
इन बाल फिल्मों को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहना तथा पुरस्कार तो मिले किंतु फिल्म महोत्सवों को छोड़ कर इनके प्रदर्शन की सही व्यवस्था नहीं की गई। अतः इनकी पहुंच अधिक दर्शकों तक नहीं हो सकी। धीरे धीरे बाल फिल्मों के निर्माण का स्तर भी कम होने लगा। कभी तकनीकि पक्ष कमज़ोर रह जाता तो कहीं कहानी कमज़ोर होती। समय के अनुसार नए विषयों को सम्मिलित ना करना भी एक वजह रही।

बॉलीवुड ने भी बच्चों को केंद्रित कर कई फिल्में बनाई हैं। राजकपूर द्वारा सड़क पर रहने वाले अनाथ बच्चों के संघर्ष पर 1954 में प्रकाश अरोडा के निर्देशन में ‘बूट पालिश’ नामक फिल्म बनाई गई। फिल्म में नाज और रतन कुमार ने मुख्य भूमिका निभाई थी।

1954 में ही ‘फिल्मिस्तान’ स्टूडियो ने शिक्षा व्यवस्था पर ‘जाग्रति’ नाम की फिल्म बनाई। इसका निर्देशन सत्येन बोस ने किया था।

महबूब खान ने भी 1962 में ‘सन ऑफ इंडिया के नाम से एक फिल्म बनाई थी। इसमें एक बच्चे की अपने मां-बाप की तलाश की कहानी को दिखाया गया है। यह बच्चा अपनी खोज के सफर में हर तरह की मुसीबत को बिना डरे झेलता है।

हाल के कुछ सालों में फिर कुछ ऐसी फिल्में बनीं जो बच्चों को ध्यान में रख कर बनाई गईं। जैसे कि ‘भूत अंकल’ ‘चेन कुली की मेन कुली’ ‘भूतनाथ’, ‘तारा रम पम’, ‘चिल्लर पार्टी’ ‘आई एम कलाम’, ‘गट्टू’, ‘नन्हा जैसलमेर’, ‘मकड़ी’, ‘ब्लू अंब्रेला’ व ‘स्टेनले का डिब्बा’ आदि।

‘मकड़ी’ फिल्म हमारे समाज में फैले अंधविश्वास को दर्शाती है। किस प्रकार लोग जादू टोने भूत प्रेत के चक्कर में फंस जाते हैं।

विशाल भारद्वाज की ‘ब्लू अंब्रेला’ ने भी संवेदना के स्तर पर बहुत प्रभावित किया। यह एक बच्ची के नीले छाते की कहानी है। यह रस्किन बांड की रचना पर आधारित है। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

प्रियदर्शन की फिल्म ‘बम बम बोले’ बच्चों में बहुत पसंद की गई| फिल्म के केंद्र में भाई-बहन हैं। एक दिन भाई की गलती से बहन के जूते गुम हो जावही हैं। अतः एक जोड़ी जूता रह जाताहै। सुबह वही जूते पहनकर बहन स्कूल जाती है। दोपहर में भाई उन्हें पहन कर अपने स्कूल जाता है। भाई इंटर स्कूल मैराथन रेस में पहले नहीं बल्कि तीसरे नंबर पर आना चाहता है क्योंकि तीसरा पुरस्कार जूते हैं जो उसकी बहन को चाहिए।

अमोल गुप्ते की फिल्म ‘स्टेनली का डिब्बा’ 9 वर्षीय स्टेनली नाम के लड़के की कहानी है। स्टेनली एक गरीब लड़का है जो स्कूल में टिफिन लेकर नहीं जाता है। यह फिल्म गरीब छात्रों के संघर्ष के एक और पक्ष को उजागर करती है।

‘चिल्लर पार्टी’ मासूम बच्चों के ऐसे समूह की कहानी है जो एक राजनेता के खिलाफ खड़े हो जाते हैं और एक आवारा कुत्ते की जिन्दगी बचाकर सबका दिल जीत लेते हैं।

‘आई एम कलाम’ एक गरीब राजस्थानी लड़के छोटू की कहानी है। जो एक दिन कलाम का भाषण सपनता है। जियसे उसका जीवन के प्रति नजरिया बदल जाता है।

आमिर खान की फिल्म ‘तारे ज़मीं पर’ हाल के समय में प्रदर्शित सबसे अच्छी फिल्म है। यह फिल्म डिसलेक्सिया से पीड़ित एक बच्चे तथा उसके शिक्षक के रिश्ते की भावनात्मक कहानी है। ईशान अवस्थी नाम के आठ साल के इस बच्चे की समस्या को कोई नहीं समझ पा रहा था। अपनी बीमारी के चलते वह पढ़ाई में मन नहीं लगा पाता है। माँ को छोड़ कर सभी उसे नालायक समझते हैं। यह सोंच कर कि बोर्डिंग में रह कर वह सुधर जाएगा पिता ने उसे बाहर भेज दिया। जहाँ वह अकेला पड़ गया। लेकिन उसके शिक्षक ने उसकी कमी को पहचान कर उत्साहित किया। जिससे वह एक सफल छात्र के रूप में उभर कर सामने आता है। ईशान का किरदार निभाने वाले दर्शील सफारी ने अपने अभिनय से सबका मन मोह लिया।

हमारा कर्तव्य है कि हम बच्चों को मनोरंजन के लिए उन्हें फिल्में दिखाएं जो उन्हें स्वस्थ व शिक्षाप्रद मनोरंजन दे सकें। चिल्ड्रेंस फिल्म सोसाइटी को चाहिए कि वह ऐसी बाल फिल्मों का निर्माण करें जिन्हें सही तरह से वितरित किया जा सके। ताकि वह अधिक से अधिक दर्शकों तक पहुँच सकें।

बॉलीवुड के और अधिक फिल्म निर्माताओं को भी इस काम के लिए आगे आना चाहिए।

*आशीष कुमार त्रिवेदी

नाम :- आशीष कुमार त्रिवेदी पता :- C-2072 Indira nagar Lucknow -226016 मैं कहानी, लघु कथा, लेख लिखता हूँ. मेरी एक कहानी म. प्र, से प्रकाशित सत्य की मशाल पत्रिका में छपी है