कहानी

मुनाफा

एक हाथ में बकरी की रस्सी पकड़े,दूसरे हाथ में चश्मे का केस,टेंपो को जोर जोर से आवाज दे रहीं थीं ।उम्र कोई 65 साल रही होगी।नाटा कद,गोल चेहरा,गोरा रंग साथ ही चेहरे पर पड़ी झुर्रियां उम्र की गिनती बयां कर रही थीं।कानों में चांदी की पुरानी घिसी बालियां देखकर लग रहा था कि जीवन की अर्थव्यवस्था ऐसे ही घिसकर चली है हमारे समाज में औरतों के कान-नाक,हाथ पैर ही परिवार की आर्थिक स्थिति को दर्शा देते हैं।लेकिन आज का दौर कुछ अलग हो चला है, अब कुछ औरतें इस समृद्धि को अपने शरीर पर लादने को ही अपना अस्तित्व नहीं समझतीं।आखिर उनका शरीर भी तो स्वतन्त्रता चाहता है।प्राचीन संस्कृति से लेकर आधुनिक संस्कृति की यात्रा में पुरुषों ने बड़ी चालाकी से अपने को पश्चिमी पहनावे के प्रति अभ्यस्त बना लिया है और महिलाओं को ही पूरी सभ्यता के वहन की जिम्मेदारी देकर खुद बड़े आश्वस्त हो चले हैं।खैर..तो वो वृद्धा लगातार टेम्पो वाले,ओ टेम्पो वाले कहकर आवाज लगा रहीं थीं,पर उनके साथ बकरी होने के कारण कोई टेम्पो वाला उन्हें बिठाने की जहमत नहीं उठाना चाहता था।
धूप बहुत तेज होने के कारण प्यास से उनका गला सूख रहा था।सामने एक बर्फ का ठेला लगा था, मन हुआ कि वहां जाकर शर्बत पियें।ब्लॉउज में रखा रुमाल निकालकर पैसे गिने,उसमें एक बीस रुपये की नोट और एक दो रुपये का सिक्का था।लेकिन पन्द्रह रुपये तो गांव पहुँचने का किराया ही है,फिर पाँच रुपये की बुढ़ऊ के लिए तम्बाकू भी लेनी है नहीं तो चिल्ला-चिल्ला के जान ले लेंगे।ये सोचकर उन्होंने थूक गटककर प्यास बुझने की तृप्ति महसूस की।साल भर से एक-एक रुपया जमाकर के बकरी खरीदी थी।प्लान तो गाय लेने का था, पर एक न एक मुसीबत के चलते उतने पैसे इकट्ठा ही नहीं हो पाए, यही सोच कर बकरी ले ली कि ये पैसे भी कहीं बुढ़ऊ की चिलम और रमेश के जुए की भेंट न चढ़ जायें।खेती-पाती कुछ है नहीं बुढ़ापे में मजदूरी कैसे हो।उम्र और काम की धीमी रफ्तार देखकर कोई काम पे भी नहीं रखना चाहता।कल ही शर्मा जी की बहू ने कहा कि दादी आप काम नहीं कर पातीं कोई और हो तो उसे लगवा दो।बुढ़ऊ भी अब खटिया लगे हैं, उन्हें केवल चिलम फूँकने से मतलब। उसमें तम्बाकू कहाँ से भरनी है ये भी नहीं पता।
भगवान ने दो बेटे भी एक-एक करके छीन लिए एक ही बचा है अब उसे भी जुए और शराब से फुरसत नहीं, रिक्शा चलाकर जितना कमाता है सब उसी में उड़ा देता है।जिंदगी भर दूसरों का चौका बर्तन कर के बड़ा किया था सोचा था बुढ़ापे में कुछ आराम मिलेगा।बड़ा वाला दिनेश तो कमाने भी लगा था शहर में।पर ये मरी ठंड ! ये सोच कर उन्होंने आह भरी, कलेजा कलप उठा उनका।उसके स्वेटर के लिए पैसा जमा किया था कि इस बार आएगा तो दे दूँगी।लेकिन क्या पता था कि ठंड उसे स्वेटर पहनने के लिए जिंदा ही नहीं छोड़ेगी।फोन आया था उसका पड़ोसी के मोबाइल पर कि घर आ रहा है।मक्के की रोटी और आलू का भरता बना के इंतजार कर रही थी कि तभी पड़ोसी ने आवाज लगाई, के दिनेश के मालिक का फोन आया है उसकी तबियत खराब है।थोड़ी देर बाद फोन की घंटी एक बार और बजी, जो ये खबर लायी थी कि दिनेश की जीवन रूपी घंटी हमेशा के लिए बन्द हो चुकी थी । माँ-बाप के सामने अगर औलाद भगवान को प्यारी हो जाये तो आँखों की रोशनी ही चली जाती है जैसे। पाँच साल पहले हुए उस दुःखद हादसे को याद करते-करते वो वहीं बैठी रह गयीं।न किसी टेम्पो वाले को आवाज देना याद रह गया और न घर जाना।

बकरी के मिमियाने से उनका ध्यान टूटा। तेज धूप के कारण वो परेशान भी हो गयी थी। फिर से उन्होंने टेम्पो वाले को आवाज लगाना शुरू किया।एक ने टेम्पो रोककर पूछा, कहाँ जाना है? विक्रमपुर जाना है, वो बोलीं। ये बकरी भी चलेगी? तो इसके पैसे अलग से लगेंगे।टेम्पो वाला चिल्लाया ।अच्छा,कितने लगेंगे?एक सवारी जितने,टेम्पो स्टार्ट करते हुए वो बोला।उतने तो नहीं हैं भैया,पाँच रुपये ले लेना,लेते चलो,बड़ी देर से धूप में खड़े हैं।बात को अनसुना करते हुए उसने टेम्पो आगे बढ़ा दिया।

धूप बढ़ती जा रही थी और प्यास भी। बकरी भी मिमियाकर थक गई थी और अब शांत होकर बगल में बैठी थी ।बड़ी समस्या थी कि घर कैसे पहुंचा जाये?मन ही मन खुद को कोसने लगीं ये सोच कर कि क्या जरूरत थी बकरी खरीदने की?कौन सा ये मुझे महारानी बना देगी।चौका-बरतन करके खर्च चल ही रहा था।घुटनों का दर्द पोछा लगाने में दिक्कत करता है, पर मालकिन लोगों से कहकर डंडे वाला पोछा मंगा लूँगी।इतनी दया तो कर ही देंगी सब मुझ बुढ़िया पे।कुछ तो आराम मिल जायेगा उससे।

आराम?आराम शब्द का नाम आते ही सुरेश का चेहरा आँखों के आगे घूमने लगा।कितना चिल्लाता रहता था कि अम्मा अब आराम करो।मत करो किसी का चौका-बर्तन, अब तो मैंने कमाना शुरू कर दिया है।चाट के ठेले पर काम करके तो ज्यादा नहीं कमा पाता था पर अब तो कर्ज़ लेकर ही सही अपना ठेला बना लिया है और शादी-पार्टी के ऑर्डर के लिए भी कोशिश कर रहा हूँ। उस दिन पहला ऑर्डर मिला था शादी में चाट लगाने का।रात में लौटा तो बहुत खुश था।बोला अम्मा,इस काम में अच्छा मुनाफा है।अगर सहालग में दस ऑर्डर भी मिल जाये तो एक ही साल में अपनी छत पक्की हो जायेगी।अब भगवान से ये मना कि खूब ऑर्डर मिले।और हाँ, अब तू ये चौका-बर्तन का काम छोड़ दे और आराम कर।ये कहकर सोने चला गया।कैसी आराम की नींद आयी थी उसे उस रोज ! सुबह रोज की तरह चाय बनाकर उसकी चारपाई के नीचे रखी और आवाज दी कि सुरेश उठ जा तेरी चाय रखी है,मैं काम पे जा रही हूं।काम करके दोपहर में लौटी तो देखा कि गिलास में चाय वैसे ही रखी है।सुरेश, बेटा तू अब तक सो रहा है,कितनी नींद आ रही है आज तुझे?हाथ पकड़कर हिलाया।पर ये क्या!हाथ नीचे लटक गया।मुंह पे मक्खियां भिनभिना रही थीं। रोते हुए बाहर दौड़ी कि देखो मेरे सुरेश को क्या हो गया?मोहल्ले वाले दौड़कर आये सबने देखकर कहा कि ये तो नहीं रहा।पहाड़ टूट पड़ा।भगवान भी मरे हुए को ही मारता है।रोटी-चटनी का सहारा भी छीन गया !उस दिन से जब भी आराम शब्द का नाम सुनती है तो सीधे मौत ही दिखाई देती है।मुझे आराम देने की बात करता था तो भगवान ने मुझे ही क्यों नहीं दे दिया आराम?

सूरज धीरे-धीरे सर पर चढ़ गया था।गर्मी में तो सुबह से ही दोपहर का आभास होने लगता है।यही सोचकर तो भोर में ही निकली थी कि दोपहर होते-होते घर लौट जाऊँगी।पर ये मरी बकरी तो जी का जंजाल हो गई।पता नहीं बुढऊ ने कुछ खाया-पिया होगा कि नहीं?या चिलम पीकर ही दिन कट रहे होंगे । इनकी चिलम और खांसी मेरे मरने के बाद ही छूटेगी शायद।रमेश भी रिक्शा लेकर लौट आया होगा।कितना कहा था उससे कि रिक्शा लेकर चला जा और बकरी खरीद ला।पर सुनता कहाँ है।सुबह रिक्शा लेकर जाना और शाम को जितना कमाये उसे दारू और जुए में उड़ाना रहता है।टाइम कहाँ पाता है बिचारा।ये सब सोचते-सोचते बकरी की रस्सी खींची और आगे बढ़ गयीं।सोचा थोड़ा और चलूँ तो शायद कोई सवारी मिल जाय।तभी एक रिक्शेवाला दिखा, मन में कुछ उम्मीद जगी । उससे पूछा, भैया विक्रमपुर चलोगे?बोला हाँ चलूँगा, लेकिन पचास रुपए लूंगा।बाप रे!इतने पैसे?पन्द्रह रुपये तो टेम्पो वाले लेते हैं।तो… रिक्शा पैरों से खींचना पड़ता है।टेम्पो थोड़े ही है कि स्टार्ट किया और चल पड़े।अगर पैसे न हों तो घर चलकर दे देना।अच्छा।मन में हिसाब लगाया कि घर में पैसे कितने रखे हैं?तो कुल मिलाकर बीस रुपये ही बच रहे थे घर में।सब मिलाकर भी तो पचास पूरे नहीं होंगे।सोचते-सोचते आगे बढ़ चलीं।रिक्शेवाले ने पीछे-पीछे रिक्शा बढ़ाया और पूछा नहीं चलना?घर चलकर कहाँ से पैसे दूँगी भैया,घर की पाई-पाई बटोरकर ही तो बकरी खरीदने आयी थी।ठीक है।लेकिन ये सड़क तो विक्रमपुर नहीं जाती, इधर कहाँ जा रही हो?उन्होंने जैसे कुछ सुना ही नहीं।बिना कुछ सोचे-समझे चलती रहीं।रिक्शेवाला भी इतना बोलकर आगे बढ़ गया।

कुछ दूर चलने के बाद थककर एक पेड़ के नीचे सुस्ताने लगीं।पास में एक कसाई की दुकान थी।वो एक बकरी के हाथ-पैर बाँधे था और उसे काटने जा रहा था।तभी दुकान पर काम करने वाला लड़का आगे बढ़कर बोला, माता जी बकरी को बेचने लायी हो क्या?जवाब में उन्होंने अपनी आंखें आश्चर्य से फैला दीं।बेच डालो अच्छे पैसे दिला दूँगा,वो फिर बोला।कितने की खरीदी थी? दोनों हाथों की दसों उंगलियां उठाकर इशारा किया उन्होंने। ‘अगर दो हजार दिला दूँ तो?सोचो किसी बैंक में इतनी जल्दी दुगुना नहीं होता।लड़का बोला । बिना कुछ सोचे-समझे उन्होंने बकरी की रस्सी उस लड़के के हाथ में दे दी।एक टेम्पो रुका और उन्हें लेकर विक्रमपुर की ओर बढ़ गया।

लवी मिश्रा

कोषाधिकारी, लखनऊ,उत्तर प्रदेश गृह जनपद बाराबंकी उत्तर प्रदेश