कविता – ‘प्रभु की माया’
हे! जगतगुरू जब –जब तुम्हें पुकारूं
तब–तब तुम बहरे क्यों?हो जाते हो।
क्या हवा लगी हैं इस दुनिया की
जो तुम अंधे भी बन जाते हो।।
आनाकानी जब–जब करते हो
मेरा साहस क्षीण होता हैं।
लाख जतन कर लूं ऊपर उठने की
फिर भी नीचे गिर जाता हूं।
हें! जगतगुरु पुकार सुनों
ह्रदय में ज्ञान ज्योति प्रकाश भरों।
हरो हमारी बाधाओं को
और हमें निश्चिंत करों।।
हें! जगतगुरू अब रूठे– रूठे न बैठों
मैं दास हूं तेरे चौखट का।
करबद्ध निवेदन करता हूं
यह जानता हूं ये सब तेरी माया हैं ।।
-– रेशमा त्रिपाठी