सोच बदलो
हे पुरुष समाज! तुम सोच बदलो,
ये दुनिया स्वयं बदल जाएगी|
नारी कोई कठपुतली नहीं,
जो इतने बंधनों में बाँधते हो|
कभी पल्लू कभी बुर्के से ढाँप उसे,
अपनी रुढ़िवादी सोच लादते हो|
कभी कपड़ों पे टीका-टिप्पणी,
कभी आँखों से उसे नापते हो|
शारीरिक, मानसिक यातनाओं से प्रताड़ित करते,
कहते लक्ष्मी, पर कोख में ही मारते हो|
पिता, पति, भाई और बेटा बन
परंपराओं में बँधे रक्षा के वादे करते हो|
तुम्हारे होते हुए भी कहाँ सुरक्षित है वो?
पौरुष पर गर्वित हो, तुम ही तो अपमानित करते हो|
त्याग, लज्जा, सहनशीलता स्त्रियों का है गहना,
झाँको अपने अंतर्मन में, तुमने क्यों नहीं पहना?
देखो! बेटा सीख रहा है तुमसे अधिकार जताना,
बेटी सीख रही माँ से चुपचाप हर दुःख सहना|
लक्षण अच्छे नहीं हैं ये इस समाज के,
क्यों स्वयं अपनी ही जड़ों को काटते हो?
बदल दो अपनी पितृसतात्मक सोच को,
बन रक्षक, इस समाज का पुन: नवनिर्माण करो
— अनिता तोमर ‘अनुपमा’