कविता

सोच बदलो

हे पुरुष समाज! तुम सोच बदलो,

ये दुनिया स्वयं बदल जाएगी|

नारी कोई कठपुतली नहीं,

जो इतने बंधनों में बाँधते हो|

कभी पल्लू कभी बुर्के से ढाँप उसे,

अपनी रुढ़िवादी सोच लादते हो|

कभी कपड़ों पे टीका-टिप्पणी,

कभी आँखों से उसे नापते हो|

शारीरिक, मानसिक यातनाओं से प्रताड़ित करते,

कहते लक्ष्मी, पर कोख में ही मारते हो|

पिता, पति, भाई और बेटा बन

परंपराओं में बँधे रक्षा के वादे करते हो|

तुम्हारे होते हुए भी कहाँ सुरक्षित है वो?

पौरुष पर गर्वित हो, तुम ही तो अपमानित करते हो|

त्याग, लज्जा, सहनशीलता स्त्रियों का है गहना,

झाँको अपने अंतर्मन में, तुमने क्यों नहीं पहना?

देखो! बेटा सीख रहा है तुमसे अधिकार जताना,

बेटी सीख रही माँ से चुपचाप हर दुःख सहना|

लक्षण अच्छे नहीं हैं ये इस समाज के,

क्यों स्वयं अपनी ही जड़ों को काटते हो?

बदल दो अपनी पितृसतात्मक सोच को,

बन रक्षक, इस समाज का पुन: नवनिर्माण करो

— अनिता तोमर ‘अनुपमा’ 

अनिता तोमर ‘अनुपमा’

बेंगलुरु शिक्षा - एम. ए.(हिंदी) गोल्ड मेडलिस्ट, बी.एड संप्रति – शिक्षिका प्रकाशित पुस्तकें – साहित्यांकुर, बज़्म-ए-हिन्द (सांझा संग्रह), भावांजलि (तृतीय), विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित| सरिता साहित्य पुरस्कार योजना के अंतर्गत दो रचनाएँ प्रथम पुरस्कार द्वारा पुरस्कृत|