ग़ज़ल
प्यार का हर शर्त अब मंजूर है
प्यार तेरा मेरा’ तो मक्दूर है |
आज थोड़ा चाय पानी आम है
आजकल ये घूस तो दस्तूर है |
देश का सब माल भरते अपने’ घर
दीखते नेता सभी अक्रूर है |
वेश है कंगाल का आपाद तक
रूप भिक्षुक माल तो भरपूर है |
आज तक विश्वास की हत्या हुई
टूट कर विश्वास चकनाचूर है |
अन्न दाने में नहीं अब शक्ति वो
गाय का चारा अभी तो बूर है |
वो नहीं करते कोई परवाह अब
रहनुमा धन शक्ति मद में चूर है |
भ्रष्ट हैं सब लोग, जिम्मेदार कौन ?
नेता’ से ईमानदारी दूर है |
हारने का डर लगा, घबरा गए
उड़ गया ’काली’ नयन का नूर है |
शब्दार्थ –मक्दूर=ताकत ,अक्रूर =दयालु
आपाद =सर से पैर तक
बूर = वो ख़ास जिसको खाने से
गाय का दूध बढ़ जाता है |
कालीपद ‘प्रसाद’