धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

माता-पिता के समान परमात्मा ने स्वप्रजा जीवों के लिये सृष्टि बनाई है

ओ३म्

हम संसार में अपने अन्य माता-पिताओं को देखते हैं जो अपनी सन्तानों जन्म उससे पूर्व से ही उनके सुख सुविधाओं की चिन्ता करते हैं। उनका दुग्ध भोजन से पालन पोषण करने के साथ उनको अच्छी से अच्छी शिक्षा देते हैं। इसके साथ ही उनके लिये अनेक सुविधाओं से युक्त घर आवास भी बनाते हैं। सन्तान को यदि कोई शारीरिक या मानसिक कष्ट होता है तो इसका प्रभाव भी माता-पिता पर पड़ता है और वह उसे दूर करने के लिये अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं। रामायण का चक्रवर्ती सम्राट दशरथ व राम का प्रसंग भी जगत विख्यात है जब राम के वन चले जाने पर राजा दशरथ पुत्र-वियोग में अपने प्राण त्याग देते हैं। राम की मातायें भी दुःखी होती हैं। आज जब हम रामायण पढ़ते हैं तो ऐसे प्रकरणों को पढ़कर हमारा मन भी उसी प्रकार के भावों से भर जाता है। स्वामी सत्यानन्द सरस्वती जी ने ऋषि दयानन्द की दया व करूणा की भावनाओं में भर कर जीवन चरित लिखा है। जीवन चरित की भाषा साहित्यिक है। ऋषि का ऐसा जीवन चरित अन्य किसी विद्वान ने नहीं लिखा। इसे पढ़ते हुए ऐसे अनेकों प्रकरण आते हैं जब पाठक अपनी भावनाओं पर नियंत्रण खो बैठता है और उसकी आंखों से अश्रुधारा प्रवाहित होती जाती है। स्वामी दयानन्द जी से हमारा रक्त सम्बन्ध नहीं परन्तु उन्होंने देश व समाज के उपकार के लिये जो प्रयत्न किये हैं उनसे हमारी सहानुभूति होने से ऐसा होता है।

हमारा परमात्मा भी एक चेतन एवं भाव प्रधान सत्ता तत्व है। वह भी अपनी शाश्वत सनातन प्रजा जीवात्माओं के कल्याण सुख के लिये इस सृष्टि की रचना करते हैं। इसमें सुख भोग की अनेकानेक सामग्री को बनाते हैं और ऐसा करके जीवात्माओं को जन्म देकर उसे संसार में भेजते हैं जहां वह अपने माता-पिता से संरक्षित रहता हुआ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। हम कभी ध्यान नहीं देते परन्तु यदि सोचें कि हमारा यह शरीर कितना जटिल कठिनता से बनाया गया है, तो हमें आश्चर्य होता है और हमारा सिर परमात्मा के चरणों में झुक जाता है। एक चिकित्सक इस शरीर में परमात्मा द्वारा बनाये गये उपकरणों व अवयवों को तथा उनकी गहनता व अपौरुषेयता को भली प्रकार से जानता है। आधुनिक चिकित्सक अधिकांशतः ईश्वर के सत्यस्वरूप को न जानने के कारण अज्ञानी नास्तिक लोगों के भ्रम में फंसकर ईश्वर को इसका महत्व नहीं देते। वह अज्ञानतावश इसे स्वचालित प्रक्रिया मान लेते हैं। वह नहीं जानते व मानते कि स्वचालित यन्त्रों का भी बनाने वाला व संचालक कोई चेतन मनुष्य व विज्ञ सत्ता होती है। यह संसार का प्रमुख एक आश्चर्य है कि जिस जगदीश्वर ने हमें बनाया है, हमें माता-पिता, कुटुम्बी, सम्बन्धी, मित्र व आचार्य आदि दिये हैं, हम अज्ञानी शिक्षित लोग उस परमात्मा के अस्तित्व को ही अस्वीकार करते हैं। इसका कारण भी हमें विदित है कि ऐसा वेद से दूर जाने वा वेदाध्ययन न करने के कारण होता है। यदि हमारे पूर्वजों ने महाभारत युद्ध के बाद आलस्य व प्रमाद का आश्रय न लिया होता तथा सत्य वेदार्थ की रक्षा में प्रचार व प्रयत्न किये होते तो न तो कहीं अज्ञान व नास्तिकता होती और न ही आज असंख्य अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों का अस्तित्व ही होता और न ही संसार में अविद्याजन्य दुःख होते जो आज वर्तमान हैं।

परमात्मा ने एक आदर्श पिता की तरह से हम जीवों के लिये यह संसार बनाया है और हमें हमारे कर्मानुसार सृष्टि में जन्म दिया है। सृष्टि संचालन का यह क्रम विगत 1.96 अरब वर्षों से निरन्तर चल रहा है। इससे पूर्व के अनन्त कल्पों में भी परमात्मा ने इसी प्रकार से सृष्टि की रचना उसका संचालन किया था। परमात्मा ने सृष्टि रचना जीवों को जन्म देने के अतिरिक्त उन पर जो महान कृपा की है वह सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों का ज्ञान देना है। वेदों में इस सृष्टि के सभी पदार्थों का यथार्थ ज्ञान दिया है जिसे ग्रहण धारण कर मनुष्य देवत्व ऋषित्व को प्राप्त हो सकता है। रामायण व महाभारत से हमें जो सत्य इतिहास विदित होता है उसके अनुसार हमारे देश में बहुत से ज्ञानी व वैरागी भावनाओं वाले व्यक्ति प्रेय मार्ग के स्थान पर श्रेय मार्ग का चयन करते थे और बहुत सादगी तथा तप व पुरुषार्थयुक्त जीवन व्यतीत करते हुए लोगों का अपने सदुपदेशों से कल्याण करते थे। महाभारत युद्ध के बाद विद्या के अध्ययन-अध्यापन, प्रचार व प्रसार का कार्य अवरुद्ध हो गया। वेदों की रक्षा नहीं की गई। वेदों का व्यवहार न रहने के कारण वेद विलुप्त हो गये। वेदों के नाम पर वेदों के मिथ्या व सत्यासत्ययुक्त अर्थ प्रचलित हो गये जिससे समाज में अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियांे सहित अज्ञान, अभाव, अन्याय, शोषण, पक्षपात आदि का वातावरण उत्पन्न हुआ। इसी के परिणामस्वरूप देश के लोगों का सर्वविध पतन देखने को मिलता है। यहां तक की हम जातीय असंगठन के कारण विदेशी विधर्मियों के गुलाम तक बने और लगभग बारह सौ वर्षों तक नरक का सा जीवन व्यतीत करते रहे हैं।

देश की वर्तमान परिस्थितियों में अज्ञानी ही कुछ सुख का अनुभव करते हैं। उन्हें भविष्य के खतरों का ज्ञान नहीं है। आज का समय देश, धर्म जाति के लिये सन्तोष करने का समय नहीं है। देश की स्वतन्त्रता धर्म रक्षा प्रमुख मुद्दे हैं जिन पर विचार कर भय लगने सहित हृदय दुःख से भर जाता है। अतः आज हमें विद्वानों की शरण में जाकर कुछ प्रश्न करने चाहिये। क्या हमारा देश सदा सदा के लिये सुरक्षित है? क्या हमारा वैदिक धर्म और संस्कृति सुरक्षित है? क्या हमारी सन्तानें बिना किसी विरोध अन्याय के अपने धर्म का पालन करने में स्वतन्त्र रहेंगी? कहीं विधमी इस देश की सत्ता पर काबिज तो नहीं हो जायेंगे? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर वह है जो हमारे लिये चिन्ता व भय उत्पन्न करता है। हम समझते हैं कि सभी आर्यों, हिन्दुओं, धर्मगुरुओं सहित विद्वानों एवं युवाओं को इन प्रश्नों पर विचार करना चाहिये और आर्य विद्वानों के निकट बैठकर इन पर चर्चा करनी चाहिये। इसके साथ ही देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा पर विचार भी करना चाहिये। यह समय यदि निकल गया तो पुनः लौटेगा नहीं? हम अपनी सन्ततियों के द्वारा निन्दा के पात्र बनेंगे। तब हमारी सन्ततियां भारी से भारी त्याग कर भी स्थिति को नियंत्रित करने में सफल नहीं हो सकेंगी। पाकिस्तान में हिन्दुओं की जो दुर्दशा हुई है, बंगला देश आदि कुछ देशों में जो वातावरण है, उस पर ही विचार कर लेने से हमें अपने भविष्य का भी अनुमान लग सकता है। इसके साथ रामायण व महाभारत सहित विगत बारह सौ वर्षों का इतिहास भी सब बन्धुओं को अवश्य ही पढ़ना चाहिये। ऐसा करने से हमें यथार्थ स्थिति का ज्ञान होगा और हम उसके सुधार के उपाय कर पायेंगे।

यह सत्य है कि यह समस्त सृष्टि वा संसार सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, अनादि तथा नित्य ईश्वर ने हम सब जीवों के सुख कल्याण के लिये बनाया है। जैसे माता-पिता अपनी सन्तानों के लिये भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, चिकित्सा आदि की व्यवस्था करते हैं वैसे ही उससे कहीं अधिक परमात्मा ने हम सब जीवों के लिये व्यवस्था की है। हमें ईश्वर के स्वरूप गुणों का चिन्तन करना है। उसके सभी सद्गुणों को जानना धारण करना है। ऐसा करने से हमारी आत्मा का विकास उन्नति होगी। हमारे सुख में वृद्धि होगी। हम भय व दुःखों से मुक्त होंगे। देश व समाज में शान्ति आयेगी। जियो जीने दो के सिद्धान्त’ का पालन होगा। हमें अपनी आत्मा को भी तत्व व यथार्थ स्वरूप में जानना है। इसके स्वरूप को जो कि सत्य, चेतन, अल्पज्ञ, अनादि, नित्य, अमर व अविनाशी, अजर, एकदेशी, ससीम, जन्म व मरण में फंसा हुआ, कर्म-फल के अनुसार सुख व दुःख पाने वाला तथा वेदज्ञान तथा वेदाचरण से जन्म व मरण से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होता है, उसे भी जानना है। उसके लिये साधनारत भी होना है। प्रकृति जड़ है। इसमें क्षणिक सुख तो है परन्तु इसका सुख स्थाई सुख नहीं है। परिणाम में इससे दुःख भी मिलते हैं। अतः हमें प्रकृति व संसार का भोग अल्पमात्रा में त्यागपूर्वक करना है जिससे हम रोगों व अशान्ति से बचे रहें। प्रतिदिन वेदाध्ययन करें व विद्वानों की कथाओं व उपदेशों का श्रवण करें। प्रतिदिन प्रातः व सायं सन्ध्या करें। आर्य भजनोपदेशक के अर्थप्रधान व मधुर भजनों को सुने।

ऋषि दयानन्द जी व आर्य महापुरुषों सहित राम, कृष्ण, चाणक्य, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज जी, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल, वीर सावरकर, पं0 रामप्रसाद बिस्मिल आदि महापुरुषों के जीवन चरित व आत्मकथाओं को पढ़े। इससे निश्चित रूप से हमारा कल्याण होगा। ऐसा करके हम अपने जीवन को उन्नत व सफल बना सकते हैं। अपनी भावी पीढ़ियों के लिये भी सुरक्षित वातावरण तैयार करने में योगदान कर सकते हैं। हमें सरकार से रामायण व महाभारत के अनुसार अपनी संस्कृति की रक्षा के लिये अपने अधिकारों के लिये भी मांग व आन्दोलन करना चाहिये। वेदों की रक्षा व अध्ययन-अध्यापन सहित सभी मूक पशुओं की हत्याओं पर प्रतिबन्ध की मांग की जानी चाहिये। हमारी उदासीनता के कारण हमें अपने बहुत से उचित अधिकारों से वंचित किया गया है। दूसरों को अल्पसंख्यक आदि के नाम पर अनेक अधिकार दिये गये हैं जिसका उचित अनुचित प्रयोग हम देख रहे हैं। हम अपने स्कूलों में धर्म व नैतिक शिक्षा तक नहीं दे सकते। जेएनयू सहित अनेक शिक्षा संस्थानों में होने वाली देश विरोधी गतिविधियां भी देश की जनता जानती है। देश में सबको वेद तथा नैतिकता की शिक्षा मिले, इसको प्राप्त करना हमारा कर्तव्य है। यदि हम व हमारी वर्तमान पीढ़ियां विचारशील होंगी तथा वह देश के हित-अहित तथा अपनी जाति के हितों का चिन्तन मनन करने सहित अवनति के कारणों पर विचार करेंगी तो हम परस्पर संगठित होकर देश की भावी पीढ़ियों के लिये किंचित सुखद वातावरण छोड़ सकते हैं। हिन्दू जाति पिछले पांच हजार वर्षों से एक प्रकार से निद्रालीन है। इसे अपने हितों व अपने विरुद्ध अपनों द्वारा किये गये षडयन्त्रों का भी ज्ञान नहीं है। यदि ऐसा ही चलता रहेगा तो परिणाम चिन्ताजनक हो सकते हैं। सन्ध्या का एक अर्थ जहां ईश्वर का चिन्तन है वहीं अपने देश, धर्म व जाति के हित व अहितों पर विचार व चिन्तन करना भी प्रत्येक देशवासी व वेदानुयायी का कर्तव्य है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य