गीतिका
भूल जगत की बातें सारी भूल जगत के रंग
आओ रच लें सृष्टि नई हम-तुम मिलकर संग
एक डोर में बंधे हुए हम दूर गगन तक को पहुंचे
ऐसे जैसे डोर बंधी कहीं उड़ती जाती है पतंग
हो कोई वाद-क्लेश, न कहीं कोई भाव- अभाव
बस प्रीत की नदिया बहे, जन्मों-जन्मों रहें संग
है क्या जगती की बात, नहीं कुछ सोचने का काम
मन से मन की राह को चलें, लिए नवीन उमंग
असीम प्रेम की गहराई में हम निसदिन डूबे-उतराए
बस प्रेम ही में रहें, कभी ना हो कोई रार-जंग
— प्रियंका अग्निहोत्री “गीत”