चैम्पियन ही चैम्पियन
नीरज ने स्वर्ण दिया
देश को अभिमान है,
नीरज को हमारी और
पूरे देश की बधाइयाँ
हम सब उनके शुक्रगुज़ार हैं।
पर अफसोस भी है,क्षोभ भी है
देश में खेलों का अब भी
कोई निर्धारित मापदंड नहीं है।
जिन्हें खेलों की ए बी सी डी नहीं आती
वे खेलों के नियम बनाते है
खेल संघों के सर्वेसर्वा
खेल प्रशासक हो जाते हैं
समितियों के पदाधिकारी हैं,
भाई भतीजावाद पर क्या कहें?
ध्यानचंद को अभी तक
भारतरत्न क्या दे पाये?
नेताओं के नाम पर स्टेडियमों के
नामकरण से हम
खेल और खिलाड़ियों का
कितना सम्मान कर पाये?
मील का पत्थर बन चुके
बहुत से दुनियां छोड़ चुके
उनके सम्मान में हम
कितने सम्मानों का
नामकरण कर पाये?
नयी पीढ़ी उनका अनुसरण
करे भी तो कैसे करे?
उनके व्यक्तित्व का हम
कितना सम्मान कर पाये?
जो पदक ले भी आये
उन्हें भी हम कहाँ वास्तव में
धरोहर कहाँ बना पाये?
उनकी कद्र करना तो दूर
सम्मान देने के लिए भी
माँग करने पड़ते हैं,
जाने कितनी घोषणाएं फाइलों में
सिर्फ़ घोषणा बनकर दम तोड़ देते हैं।
सच बताइए कितने हकदारों को
वास्तव में सम्मान मिलते हैं?
यह विडंबना नहीं तो क्या है
नामों की फेहरिस्त के साथ ही
अक्सर विवाद भी होते हैं।
एक दो पदकों पर हम
कितना उछलते हैं,
पदकों की चिंता में तो हम
कितना दुबले होते हैं,
बस खिलाड़ियों की बातों पर
कान भर नहीं देते।
काश ! हम अभी भी चेत जायें
खेलों की हर व्यवस्था
नीति निर्धारण में खेलों से जुड़े
खेल महारथियों को
खेलों में जीवन खपा चुके
लोगों को जिम्मेदार बनाइए।
एक दो पदकों की बात
फिर भूल जाइये
स्वर्ण पदकों की गिनती नहीं
पदकों के शतकों की आस
विश्वास दोहराइए ।
तब जाकर सपने पूरे होंगे
थोक में स्वर्ण संग अनगिनत पदक
देश की झोली में होंगे,
तब एक दो चैम्पियन नहीं
देश के हर कोने से
चैम्पियन ही चैम्पियन होंगे।