पुस्तक समीक्षा

“ज़िन्दगी अनुबंध है” ग़ज़ल संग्रह की समीक्षा

आमतौर पर ऐसा ही होता आया रहा है कि ग़ज़लो-शे’रो-शायरी की दुनिया में प्रेम,मोहब्बत,विरह,वेदना वग़ैरह-वग़ैरह को ही हम विषय का केन्द्र मानते,लिखते और पढ़ते आते रहें हैं। हाॅं ये बात अलग है कि कुछ नामचीन शायरों में- अदब गोंडवी,मिर्ज़ा ग़ालिब,मीर तक़ी मीर,फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,कैफ़ी आज़मी, जिगर मुरादाबादी,शकील बदायुनी,फ़िराक़ गोरखपुरी और दुष्यन्त कुमार आदि आदि ने इससे हटकर एक अलग लकीर खींची और ग़ज़लो-शे’रो-शायरी को एक नये ढाँचे में प्रस्तुत कर ; सामाजिक न्याय के लिए कारगर हथियार के रूप में अपनाया और स्थापित किया। इसके बाद के क्रम में इसी तरह कुछ और नाम,जो दौरे-हाज़िर में उल्लेखनीय हैं,में-मूलचन्द्र सोनकर,तेज सिंह तेज,बी.आर.विप्लवी,रमेश नाचीज़ आदि इत्यादि जो अपने तल्ख़ तेवरो-अन्दाज़ में ज्वलन्त समसामयिकी को उठाते हुए इंक़लाब, हक़-हुकूक और न्याय की बात अपने ग़ज़लो-शे’रो-शायरी में की है। 

साहित्य हमेशा से ही समाज का दर्पण रहा है और आज भी जब अंधविश्वास,पाखण्ड, रूढ़िवादिता,अमानवीयता और वर्चस्ववाद का बोलबाला अपने चरमोत्कर्ष पर है,तो साहित्य ही समाज को सम्यक दिशा-दृष्टि का बोध कराने का कार्य कर रहा है। ठीक इसी तरह 148 पृष्ठीय-विस्तार में सिमटी “ज़िन्दगी अनुबंध है” एक ऐसी ही साहित्यिक दस्तावेज़ है, जिसमें समस्त 117 ग़ज़लें,कुछ नज़्में व क़तआत संकलित हैं।

 *यह संग्रह पढ़ते हुए आपके दिलो-दिमाग में वैचारिक उथल-पुथल ना हो,ऐसा हो ही नहीं सकता। मेरा यह दावा है कि आदरणीय आर.पी.सोनकर ‘तल्ख़ मेहनाजपुरी’ साहब की ग़ज़लों से गुजरते हुए आप अपनी ज़िन्दगी के अनुभवों से गुरेज़ नहीं कर सकते। और संयोग से कहीं आप गर फुले-अंबेडकर की विचारधारा के हैं,तो फिर क्या मिसरे-मिसरे पर झूमने वाले हैं।*

*आदरणीय आर.पी.साहब की ग़ज़ल-ओ-शे’रो-शायरी में वो शऊर मौजूद है,जो पारंपरिक अरुज़ की कसौटी पर ग़ज़लियत का विशुद्ध तानाबाना बुनने का कमाल करता है। आर.पी.साहब का अंदाजे-बयां भी कमाल का है। संग्रह को पढ़ते हुए आप अनायास ही दुःख-दर्द, सामाजिक यथार्थ व यक़ीक़त बयानी की अभिव्यक्ततात्मक तरंगों में झूम उठेंगे। जितने चुटीले व सुरीले पूर्ण अंदाज में बड़े ही साफ़गोई के साथ इन्होंने वाह्य-आडंबर, अंधविश्वास, पाखण्ड व धर्म की ख़बर ली है, क़ाबिले-तारीफ़ है।*

आइए ‘तल्ख़’ साहब की ग़ज़लियत पर प्रकाश डालते हुए कुछ शे’रों/शायरी का आनंद उठाएं,,

01.

शिक्षा की महत्ता को रेखांकित करते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं–

_”पढ़ाई से बदल जाती है दुनिया,_

_समझ में “तल्ख़” आता जा रहा है।_

_जिन्हें छूने से था परहेज़ अब तक,_

_गले उनको लगाया जा रहा है।”_

02.

अंधविश्वास पर चुटकी लेते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं–

_”मरने लगी हैं जल के प्रदूषण से मछलियाॅं,_

_गंगा में रोज़-रोज़ नहाने से बाज़ आ।”_

03.

हिन्दू वर्ण-व्यवस्था की मानसिकता को खरी-खोटी सुनाते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं– 

_”रहूॅं कमतर मगर हिन्दू रहूॅं मैं,_

_इनायत आपकी कुछ कम नहीं है।”_

04

द्रोणाचार्यों से सावधान करते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि–

_”अभी भी ज्ञान के बदले जहाॅं में,_

_अंगूठा काटने वाले बहुत हैं ।”_

05.

तथागत बुद्ध व अंबेडकर साहब से शिक्षा लेते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि–

_”तथागत बुद्ध से अंबेडकर से ‘तल्ख़’ ने सीखा,_

_हमें इंसानियत की राह को पूरनूर करना है।”_

06.

नारियों के प्रति दोहरी मानसिकता रखने वाले समाज की काली सच्चाई को उजागर करते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि–

_”यहाॅं नारी की गरिमा बस किताबों तक ही सीमित है,_

_जलाते हैं बहू घर की, जो कन्या-दान लेते हैं।”_

07.

सियासत के काले चरित्र को उजागर करते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि–

_”रोटी – रोज़ी इल्मो – हुनर पर पाबंदी,_

_बस मज़हब-मज़हब चिल्लाया जाता है।”_

08.

दमित-शोषित वर्ग की दास्य-प्रवृत्ति से ऊबते हुए ‘तल्ख़’ साहब प्रश्न करते हैं कि–

_”क्या ग़फ़लत में ही जीना अब तुमने ठान लिया है,_

_जागो भी, कब तक सोओगे, कब तक, आख़िर कब तक।”_

09.

आदमीयत की बात करते हुए है ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि–

_जौहरी हैं , वफ़ा की समझ है हमें,_

_आदमीयत को गहना समझते हैं जी।”_

और यूॅं भी

_”आदमी में आदमीयत है तो वो इन्सान है,_

_है जो मानवता तो छोटा-बड़ा कोई नहीं।”_

और यूॅं भी

_”खिलौना एक मिट्टी के हैं सब तो फ़र्क़ है कैसा,_

_सभी को एक-सा सम्मान, मिल जाये तो मैं जानूॅं।”_

10.

सामाजिक न्याय की दुनिया से दरकिनार कर दिए गए लोगों की बात करते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि–

_”तल्ख़ नहीं लिखती है, जिनके बारे में दुनिया,_

_क्यों न उन्हीं की बात लिखूॅं, मैं आजमगढ़ का हूॅं।”_

11.

सरकारी वादें और दावों की असलियत को उजागर करते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि–

_”ग़रीब भूखें, किसान भूखें, है आदिवासी की प्यास सूखी,_

_वतन का रहबर ये कह रहा है, अनाज से घर भरे-भरे हैं।”_

अन्त में बेगैर भूमिका के ही निम्न कुछ अश’आर दृष्टव्य हैं —

_”सफलता पाॅंव की है धूल इनके,_

_नहीं कम अब किसी से नारियाॅं हैं।”_

और

_”परखना है अगर हमको, तो अवसर भी तो हमको दो,_

_शिखण्डी की ही संताने, तो बस होती नहीं क़ाबिल।”_

और

_”ख़ून अब बिकने लगें हैं रोटियों के दाम पे,_

_ऐसे में क्या लेखनी ख़ामोश रहनी चाहिए।”_

और

_”दास्ता की दास्ताॅं पढ़ते तो तुम भी जानते,_

_दर्द में डूबी हुयी, ऐसी कथा कोई नहीं।”_

और

_”धर्म, सियासत के पेशे से,_

_पेशा कौन यहाॅं बेहतर है।”_

और

_”हमेशा जो ठगे जाते हैं पण्डों और पुजारी से,_

_उन्हीं से क्यों ये भोले लोग, फिर वरदान लेते हैं।”_

और

_”किसी के मुॅंह में है चाॅंदी का चम्मच,_

_निवालों के कहीं लाले बहुत हैं ।”_

और

_”आपकी ऊॅंची हवेली ख़ाक में मिल जायेगी,_

_बस ज़रा मज़दूर की ताक़त कुचल कर देखिए।”_

और

_”चलो माना बुलन्दी पर है तेरे ज़ुल्म का सूरज,_

_वहीं ठहरा रहेगा ये, समझना बेवक़ूफ़ी है।”_

और

_”बदलता है सब कुछ, है शाश्वत नियम ये,_

_कोई रोक ले , ऐसी ताकत नहीं है।_

_ख़ुदा गर समझते हो ख़ुद को समझ लो,_

_ये दुनिया तुम्हारी बदौलत नहीं है।”_

और

_”हमारी शायरी क्या है, जगा देती है ज़ह्नों को,_

_बग़ावत का छुपा तूफ़ाॅं, हमारी शायरी में है।”_

और

_”पत्थर की माता की पूजा करते हैं,_

_अपनी माॅं के पाॅंव में दुःख का छाला क्यों।”_

और

_”पाखण्डों के साॅंपों से जब खतरा है,_

_तल्ख़ बताओ तुमने घर में पाला क्यों।”_

और

_”चुभूंगा शूल-सा तुमको सितमगर,_

_न समझो राह में यूॅं ही पड़ा हूॅं।_

_मुझे तुम लाख सूली पर चढ़ाओ,_

_मैं अपनी सच बयानी पर अड़ा हूॅं।”_

और

_”इतना ज़हर भरा है तेरी रग-रग में,_

_विषधर तुझकों काटेगा पछतायेगा।”_

और

_”ज़ुल्मो-सितम की ख़ौफ़ से हथियार डाल कर,_

_चुप्पी को ही जवाब समझने लगे हैं लोग।”_

और

_”ग़रीब शख़्स करे पेट के लिए चोरी,_

_अमीर लूटता है और ऐश करता है।”_

और

_”माॅंए हारी हैं जब भूख की जंग में,_

_चंद सिक्कों के बदले बिकीं बेटियाॅं।_

और

_”इबादत समझी जाती है मुहब्बत कृष्ण-राधा की,_

_करें जो बेटियाॅं तो तीरो-तरकश का निशाना है,_

_जहाॅं देवी बना कर नारियों की पूजा होती है,_

_वहीं नारी के शोषण का चलन सदियों पुराना है।”_

और

_”अगर मुहब्बत से पेश आऍं, तो तुम मोहब्बत से पेश आना,_

_उन्हें न हरगिज़ मुआफ़ करना,जो तुमको नाहक़ सता रहें हैं।_

_पहन के पाखण्ड का लेबादा, बुतों से हमको डरा-डरा कर,_

_चढ़ावा बुत को छुआ-छुआ कर,अकूत दौलत कमा रहे हैं।”_

और

_”ताक़ पर रखकर नियम-क़ानून ये कुछ सरफ़िरे,_

_अपने-अपने मन की करवाने लगे हैं आजकल‌।_

_फिर न बन जाये कोई शासक दलित, पिछड़ा यहाॅं,_

_मन ही मन वो डर से घबराने लगे हैं आजकल।”_

और

_”वोटों के बदले में तू उनसे, गेंहूॅं-चावल पा लेगा,_

_लेकिन वाजिब हक़ पा लेगा,नामुमकिन-नामुमकिन है।”_

और

_”कोई औरत नहीं है देह फ़क़त,_

_रूह में झाॅंकिए शराफ़त से।”_

और

_”आग की परवान चढ़ जाती हैं सीता,_

_राम हो जाते हैं पुरुषोत्तम यहाॅं पर।”_

और

_”बुरे कर्मों के फल से तुम बचा सकते नहीं ख़ुद को,_

_चढ़ावा दो या ख़ुद को गंगा-जल से ख़ूब नहलाओ।”_

और

_”हम मुख़ालिफ़ ज़ुल्म के हैं सर झुका सकते नहीं,_

_आप चाहें तो हमारा सर क़लम कर दीजिए।”_

और

_”सदा-ए-हक़ उठाना गर बगावत है तो सुन ज़ालिम,_

_मैं बाग़ी हूॅं, लो अपने जुर्म का इक़रार करता हूॅं।”_

और

 _”देश के रहबर हमें परमाणु युग में ले चलें,_ 

_भूख, रोटी, मुफ़लिसी अब हाशिए पर आ गयी।”_

उपर्युक्त शे’रों/अश’आरों में ‘तल्ख़’ साहब की वैचारिक गहराई,बानगी व व्यंग्यात्मक पुट के साथ तल्ख़ी सच्चाई को उद्घाटित करने की कला स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। एक पठनीय और शोधपरक ग़ज़ल संग्रह के लिए मैं ‘तल्ख़’ साहब को बहुत-बहुत बधाई सह मंगलकामनाएं प्रेषित करता हूॅं। साथ ही सामाजिक बदलाव के सभी पक्षधर व ग़ज़ल-प्रेमियों से इस महत्वपूर्ण संग्रह के पठन-पाठन व प्रचार-प्रसार हेतु आग्रह करता हूॅं। उम्मीद है कि यह ग़ज़ल संग्रह वैचारिक क्रान्ति व सामाजिक बदलाव की दिशा में एक कारगर हथियार के रूप में अपना महत्वपूर्ण स्थान हासिल करने में अवश्य ही सफल होगा।

        ।। भवतु सब्ब मंगलम् ।।

— नरेन्द्र सोनकर ‘कुमार सोनकरन’

नरेन्द्र सोनकर

उपनाम--कुमार सोनकरन पिता का नाम--राजेन्द्र प्रसाद माता का नाम--मालती देवी अभिभावक का नाम--नरेश कुमार सोनकर स्थाई पता-- ग्राम नरैना, पोस्ट रोकड़ी, तहसील करछना, जिला प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)। पिन कोड--212307 जन्मतिथि--27-03-2001 शिक्षा-- माॅं कमला उच्चतर माध्यमिक विद्यालय रोकड़ी से 1 से 8वीं तक पं.लक्ष्मी नारायण इंटर कॉलेज निदौरी से मैट्रिक मदन मोहन मालवीय इंटर कॉलेज करछना से इंटरमीडिएट इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक व संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से बीएड प्रशिक्षणरत। आप टिप्पणी--आंबेडकरवादी विचारधारा से प्रभावित। दलित,स्त्री व प्रकृति विषयक मुद्दों पर बेबाक लेखन-प्रयत्न। रुचि--कविता पढ़ना-लिखना और पढ़ाना,खोज, तर्क-वितर्क विधा--कविता,कहानी,दोहा,हाइकु ग़ज़ल,माहिया,शायरी,नाटक,उपन्यास,आत्मकथा इत्यादि। सम्मान-- काव्य कुमुद,कल्प कथा व राष्ट्रीय अभिनव साहित्य मंच प्रयागराज द्वारा दशाधिक बार प्रशस्ति पत्र व सम्मान प्राप्त। रचना-प्रकाशन--अमर उजाला काव्य पटल पर 350 से अधिक,जयदीप पत्रिका में 20 से अधिक, मानस पत्रिका व आइडिया सिटी न्यूज़ बनारस से दशाधिक और हिन्दी बोल INDIA पर रचनाएं प्रकाशित। चलभाष--8303216841 Email:- [email protected]