कृपा
“क्या हुआ बेटा! तेरी आवाज क्यों काँप-सी रही है? जल्दी से बता.. हुआ क्या…?”
“माँ वो गिर गया था सुबह-सुबह…।”
“कैसे, कहाँ गिरा, ज्यादा लगी तो नहीं? डॉक्टर को दिखाया! क्या बताया डॉक्टर ने?”
” माँ ज्यादा तो नहीं लगी, पर डॉक्टर कह रहे थे कि माइनर ऑपरेशन करना पड़ेगा। नाक में भीतरी चोट है।”
“ऑपरेशन…ऽ..ऽ…!”
“अरे मम्मा, परेशान होने वाली बात नहीं है।”
“सुन, अभी मत कराना ऑपरेशन। मैं तुरन्त चलती हूँ, शाम तक पहुँच जाऊँगी।”
प्रभु को याद करती हुई मानसी फोन रखते ही रो पड़ी। तुरन्त ही बेटे के पास जाने की तैयारी में जुट गयी हबड़-तबड़।
अभी दो साल पहले ही मिक्कू के पैरों का ऑपरेशन हुआ था| बस में बैठ वह सोचने लगी- फिर दो-तीन बार और दुर्घटना हुई और अब ये नाक पर चोट! भगवान, तू इस तरह क्यों बार-बार परीक्षा ले रहा है मुझ गरीब की! सोचते-सोचते साड़ी के पल्लू से रास्ते भर अपने आँसू पोंछती रही वह।
घर पहुँचते ही मिक्कू को साथ ले, अस्पताल पहुँची। बरामदों तक में पड़े कराहते हुए, रोते और दर्द से तड़पते हुए मरीजों और उनके तीमारदारों को देख वह भौंचक रह गयी। उसने हँसते हुए उसके साथ चल रहे मिक्कू की ओर देखा। सोचने लगी- मुझे तो काजल की लकीर-सा हल्का धब्बा ही दिया प्रभु ने। इन सब मरीजों के जीवन में तो काली रात का अँधेरा भर रखा है। तू बड़ा दयालु है भगवान, यूँ ही कृपा बनाए रखना मुझ पर।
अपने आँसू पोंछ वह मुस्कराती हुई डॉक्टर की केबिन में घुस गई।
— सविता मिश्रा ‘अक्षजा’