स्वास्थ्य

होटल का खाना, रोग बुलाना

एक समय था कि जो लोग अपने कार्य या व्यापार के कारण बाहर रहते थे वे ही विवशता में होटलों में खाना खाते थे। यह बहुत हद तक स्वीकार्य था, लेकिन आज स्थिति बहुत बदल गयी है। आज हम देखते हैं कि कोई विवशता न होने पर भी केवल जीभ के स्वाद के लिए और अपने घर पर भोजन बनाने से बचने के लिए ही लोग होटलों में खाते हैं। पहले महीने में एकाध बार एकरसता तोड़ने के लिए खरीदारी करने और घूमने के इरादे से लोग घर से निकलते थे और घूम-फिरकर बाहर खाना खाकर लौटते थे। यह भी कुछ सीमा तक स्वीकार्य था।

लेकिन आज स्थिति बहुत भयावह हो गयी है। ऑनलाइन फूड सप्लाई करने वाली कम्पनियाँ अब किसी भी रेस्तराँ का बनाया हुआ खाना कुछ ही मिनटों में घर पर पहुँचा देते हैं। पहले यह सेवा प्रायः केवल पिज्जा मँगाने के लिए ही ली जाती थी और मजाक में कहा जाता था कि हमारे महान भारत देश में एम्बुलेंस दो घंटे में पहुँचती है, लेकिन पिज्जा 20 मिनट में आ जाता है। पर आजकल पिज्जा ही नहीं, साधारण खाना, इडली-डोसा और गोल-गप्पे तक ऑनलाइन ऑर्डर देकर होटलों से मँगाये जाते हैं। आजकल की लड़कियों को खाना बनाना आता हो या नहीं, लेकिन वे ऑनलाइन फूड ऑर्डर करने में बहुत निपुण होती हैं।

गृहिणियों की इसी आलसी प्रवृत्ति के कारण ऑनलाइन फूड का व्यापार दिन-दूनी रात-चैगुनी गति से बढ़ रहा है। अब यह केवल उच्च वर्ग का शौक नहीं रहा, बल्कि निम्न मध्य वर्ग तक इसकी चपेट में आ चुका है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2024 में हमारे देश में इस व्यापार का आकार 44 अरब डॉलर रहेगा अर्थात् लगभग 36 खरब रुपये। इस व्यापार के बढ़ने की वार्षिक दर 16.14 प्रतिशत है। इसका अर्थ है कि मात्र 5 वर्ष में यह व्यापार दो गुने से भी अधिक हो जाता है। इसी अनुपात में रोगों, रोगियों, अस्पतालों, दवाओं, डॉक्टरों आदि की संख्या भी बढ़ रही है। देश बहुमुखी विकास कर रहा है!

यह कोई दबी-छिपी बात नहीं है कि होटल का खाना मूलतः स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही होता है। इसके कई कारण हैं- घटिया गुणवत्ता के अनाज, आटे, मैदा आदि का अत्यधिक प्रयोग, नमक मिर्च आदि मसालों की भरमार, सफेद चीनी का उपयोग, आवश्यकता से अधिक पकाना, रिफाइंड वनस्पति तेलों का उपयोग आदि-आदि। इन कारणों से साधारण खाना भी पचने में भारी और रोगों को उत्पन्न करनेवाला हो जाता है। कई बार तो उनमें प्रतिबंधित रंगों, अजीनोमीटो नमक और हानिकारक केमीकलों तक का उपयोग किया जाता है। इसीलिए ऐसे खाने को जंक फूड या कचरा भोजन कहा जाता है। इनसे हमारी जीभ को भले ही स्वाद मिल जाता हो, लेकिन शरीर के लिए वह विषतुल्य ही होता है।

एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। मेरी एक भांजी बाहर की वस्तुएँ खाने की बहुत शौकीन थी। घर का खाना उसे अच्छा नहीं लगता था। आये दिन पिज्जा, बर्गर, पेट्टीज, मोमोज आदि खाना उसकी आदत थी। इसी कारण उसके पेट में प्रायः दर्द रहता था और उसके लिए वह वैद्य की दवा भी लगातार खाती रहती थी। मेरे समझाने का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं होता था। फिर आया कोरोना और लाॅकडाउन, जिससे कई महीने तक बाहर का खाना बन्द रहा। उसे दोनों समय घर का बना भोजन करना पड़ता था। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि एक महीने में ही उसका पेट दर्द गायब हो गया और जब तक लॉकडाउन रहा तब तक कभी उसके पेट में दर्द नहीं हुआ। फिर लॉकडाउन समाप्त होते ही उसकी पुरानी आदत प्रारम्भ हो गयी और पेट का दर्द भी।

इसलिए यह मान लीजिए कि होटलों का खाना आपके स्वास्थ्य का शत्रु है, भले ही होटलवाले कितना भी दावा करते हों कि यहाँ घर जैसा भोजन मिलता है। यदि कभी हम बाहर घूमने जाते हैं, जहाँ खाना बनाने की सुविधा नहीं होती, वहाँ तो होटल का भोजन करना मजबूरी होती है। लेकिन ऐसी मजबूरी में भी अधिकतम सम्भव स्वास्थ्यप्रद वस्तुओं का चयन करना चाहिए, जैसे फल, फलों का जूस, ताजा सलाद, रोटी-सब्जी, दाल-चावल, उपमा, इडली, डोसा आदि। कभी कभी चीला, पकौड़े, चाऊमीन खा लेना भी ठीक है। लेकिन मैदे से बनी वस्तुओं से यथासम्भव बचना चाहिए। अपने घर के बने हुए छोले-भटूरे और पाव-भाजी बाजार की इन्हीं चीजों से हजार गुना अच्छी और स्वादिष्ट होती हैं और उनसे स्वास्थ्य को हानि पहुँचने की सम्भावना भी न के बराबर होती है।

यह बात हमें भलीप्रकार समझ लेनी चाहिए कि माता, बहिन, पत्नी, पुत्री आदि के द्वारा बनाया गया भोजन अमृत के समान होता है। ऐसा भोजन आपको बाजार में किसी भी मूल्य पर नहीं मिल सकता। वैसे भी वैज्ञानिक अध्ययनों से स्पष्ट हो चुका है कि हमारा परम्परागत भोजन रोटी, सब्जी, दाल, चावल संसार के सभी भोजनों में सर्वश्रेष्ठ और पौष्टिक होता है और ऐसा भोजन जीवनभर प्रतिदिन दो बार करने पर मानव पूर्ण स्वस्थ रहता है। इसलिए हमें जहाँ तक सम्भव हो अपने परम्परागत उत्तम भोजन का ही सेवन करना चाहिए।

पहले हमारी माता-बहनें घर में उपलब्ध शुद्ध सामग्री से ही अनेक प्रकार का स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन तैयार कर देती थीं, लेकिन अब आलस्य के कारण उनका मन रसोई में नहीं लगता, बल्कि बेहूदे टीवी सीरियलों, रीअलिटी शो और क्रिकेट मैच देखने में अधिक लगता है। इसीकारण ऑनलाइन फूड वालों का धन्धा चल रहा है और हमारे स्वास्थ्य का सर्वनाश हो रहा है, जिसका कुपरिणाम अनेक प्रकार की बीमारियों और कम उम्र में ही मृत्यु के रूप में सामने आता है। शायर अकबर इलाहाबादी के शब्दों में – कटी उम्र होटलों में, मरे अस्पताल जाकर।

— डॉ. विजय कुमार सिंघल
वैशाख शु. 4, सं. 2081 वि. (12 मई, 2024)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]