कविता

अब तो पहाड़ भी नीचे आने लगे हैं

कभी बहुत पसंद करते थे लोग पहाड़ों को
अब तो पहाड़ भी चलकर नीचे आने लगे है
आवोहवा होती थी जिनकी बहुत स्वास्थ्यवर्धक
अब वही पेड़ पौधे सड़कों मकानों को डूबाने लगे हैं

कल तक जिसको मानते थे देवता
अब वही देवता क्यों डराने लगे हैं
कभी धीरे कभी एकदम आ जाते हैं नीचे
सड़कों रास्तों को तहस नहस कर अब जाने लगे है

लोग देखने आते थे कभी जिन पहाड़ों को
अब आने से बहुत कतराने लगे हैं
नदियां नालों झरनों को देखकर खुश होते थे कभी
अब उन्हें देखकर डर जाने लगे हैं

दफन हो गई कई जिंदगियां इनके नीचे
निशान उनके मिट जाने लगे हैं
खो गए जो पहाड़ पर जाते जाते
अब वह याद बहुत आने लगे हैं

शांत बहते थे नदी नाले पहाड़ों में
अब वह रौद्र रूप दिखाने लगे हैं
बहा ले जा रहे अब बस्तियां और गांव
अब तो गांव को श्मशान बनाने लगे हैं

बाहर से आकर यहां कूड़ा हैं फैलाते
पहाड़ फिर भी नज़रअंदाज़ हैं कर जाते
कुरेदने लगे हैं जब बदन उसका नुकीले पंजों से
तुम ही कहो कैसे उसको बर्दाश्त कर पाते

क्यों हो रहा है ऐसा कभी सोचना फुर्सत में बैठकर
हमारे ही कर्म हैं जो अब सामने आने लगे हैं
कल तक जो तराने मदहोशी में गा रहा था आदमी
आज पर्यावरण और प्रकृति वही तराने गाने लगे हैं

— रवींद्र कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र