ग़ज़ल
कोहकन के द्वार तक सूरज का डेरा आ गया,
जागती आंखों में जैसे ख़्वाब तेरा आ गया।
आसमां पे चाँद को तकता था इक मायूस चाँद,
लूटने यह लुत्फ़ इक बादल घनेरा आ गया।
क्या ग़ज़ब है क्या अजब किसकी दुआओं का असर,
जाल में इक सोन मछरी के मछेरा आ गया।
रात के हाथों लुटा फिर रोशनी का कारवां,
जुगनुओं की लाश लेकर फिर अँधेरा आ गया।
चल पड़े हैं ख़्वाब लेकर नींद की बैसाखियाँ,
शबनमी अंगड़ाइयां लेकर सवेरा आ गया।
अपने कमरे से उठा लाई हूँ तन्हाई का ख़त,
इश्क़ ने हर लफ्ज़ में ख़ुद को बिखेरा, आ गया।
दोनों दुनिया जीतनी थी एक लम्हे में ‘शिखा’,
दिल तेरे दिल का लगाकर एक फेरा आ गया।
— दीपशिखा