समाज की लकीर!
देखती हूँ जिसे बंद पलकों से मैं,
एक धुंधली सी तस्वीर वो मेरी है,
बंद करने वाले हाथ भी नहीं मेरे,
शायद यही सदियों से तकदीर मेरी है!
यह समाज है या समाज की लकीर!
बना दिया है मुझे किस्मत का फ़कीर,
न कुछ देखूं, न कुछ बोलूं, न डोलूं,
पर चाहता है हर कोई मेरी ही उकीर!
सबकी सुनूं, सबके मन की करूं,
सबकी आकांक्षाओं के भंडार भरूं,
न देख सकूं अपने मन की चाहत,
तनिक झांकने से भी मैं निपट डरूं!
आंख बंद हो समाज की या फिर मेरी,
नहीं टल सकेगी संकट की रणभेरी,
आंख खोलने दो वरना जलेगी दुनिया,
‘गर नारी ने तनिक भी आंख तरेरी
— लीला तिवानी