कविता

मन की पतंग

मन की पतंग ऊंची उड़ना चाहे,
जिधर चाहे उधर ही मुड़ना चाहे,
देखो तो मगर पतंगकीउड़ान,
अपनों से ही हरदम जुड़ना चाहे!
अपने तो फिर भी अपने होते हैं,
बाकी सब तो सपने ही होते हैं,
रिश्तों की डोर से बंधी उड़े पतंग,
वरना सपने बस खपने होते हैं!
सौहार्द हो, नहीं कोई विवाद हो,
अखंडता का तुमुल निनाद हो,
देश में उड़े या फिर उड़े विदेश में,
शुभेच्छाओं से सराबोर संवाद हो।
उड़ती जाएगी मन की पतंग,
नभ छू जायेगी बन के मलंग,
उस पार होकर आयेगी फिर,
उत्तरायण-पर्वों को रंगती पतंग।
लड़ती-कटती, अड़ती-भिड़ती,
करती मगर दाता से विनती,
जड़ से जुड़ी रहे मन की पतंग,
अपनों में होती रहे मेरी गिनती।

— लीला तिवानी

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

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