हरिपद छंद
बंधन बाधा सभी मिटाकर, जाना है उस पार।
पालन करना नियम-धरम तुम, तब होगा उद्धार।।
जपते नित हम सब ही हरिहर, करते पूजा पाठ।
साठ पार हो गई उम्र अब, रहो मजे से ठाठ।।
करते क्यों हो मनमानी तुम, बढ़े बहुत हैं भाव।
औरों की पीड़ा की अतिशर, कहाँ दीखता घाव।।
तोड़ उम्र का बंधन अब तुम, करते सीमा पार।
ऐसा होता यहाँ आजकल, प्यार बना व्यापार।।
बंधन मातु- पितु भी हैं अब, लगते हमको आज।
वृद्धाश्रम के मुख्य द्वार पर, फेंक रहे हैं ताज।।
हारे अपनी औलादों से सब, पीट रहे हैं माथ।
सारे बंधन अब तोड़कर, चाहें प्रभु का साथ।।
धर्म जाति का तुम भी बंधन, अब तो तोड़ो मित्र।
नेताओं के झांसे में आकर, धूमिल करते चित्र।।
फेरों का गठबंधन भी अब, देख रहा निज स्वार्थ।
संवेदनहीन बन रहा मन, रिश्ते बनें पदार्थ।।
भावहीन होते बंधन अब, दिखते सब बेचैन।
कुंठित होते जाते हैं मन, और भीगते नैन।।
श्रेय ले रहे स्वयं आप अब, शर्मोहया को छोड़।
कैसे युग का चलन आजकल, सारे बंधन तोड़।