कविता

मुक्त होने का समय

अब किस बात का इंतजार है,
क्या आपका दिल नहीं बेकरार है,
हजारों वर्षों तक दबे कुचले हो
जीने से घुटन महसूस नहीं हो रही,
आधी आबादी क्यों चिरनिद्रा सो रही,
अब और कितने समय तक
खुद से जोर नहीं लगाओगे,
हाथ जोड़े-घूंघट काढ़े
कब तक चुप रह पाओगे,
प्रभात आपके लिए भी हो गया है,
देखी भाली हो इस दुनिया को
आपके लिए कुछ भी नहीं नया है,
लूटा गया मान सम्मान,हक़ अधिकार,
देखो आज भी यहीं है,
बदले स्वरूप सारी देनदारियां
एक एक कर गिनने का समय है,
एकपक्षीय सोच वालों से
सब कुछ छीनने का समय है,
इतनी बदल चुकी दुनिया
क्या आज से स्वयं
जुड़ने का मन नहीं करता,
उड़ रही है नारियां अन्य देशों की
क्या आपका मन उड़ने को नहीं करता,
साम,दाम,दंड,भेद से
है जो बिछाया गया जाल
उसे आगे आ खुद से काटो,
ड्योढ़ी लांघने का ये अच्छा समय है
मन में ठान निकलो घर से
खुद को खुद ही खुशियां बांटो,
आपके लिए प्रकृति का वरदान
अजर-अमर और अभय है,
काट डालिये हर बेड़ियां
ये बंधनों से मुक्त होने का समय है।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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