कविता

विडंबना

विडंबना इस समाज की,
सुदूर और आस पास की

ब्याही जाती हैं लड़कियां यहां सरकारी नौकरी से, लम्बे चौड़े बिजनेस से,
प्रॉपर्टी से, ऊंचे खानदान से, सुदूर किसी अंजान से
बस होता नही है गठजोड़ उनका उनकी प्रीत से, उनके मनमीत से|

विडंबना इस समाज की,
सुदूर और आस पास की

लडको की भी होती है शादियां, आती है उनकी पत्नियां
ऊंचे घराने से, दान दहेज से , पद प्रतिष्ठा से, पारिवारिक शान से
होता नहीं बस मेल उनसे, फ़िदा जिनपर वो दिलो जान से
लड़के भी भुला कर प्रेम को, चुनते हैं पॉवर गेम को|

विडंबना इस समाज की,
सुदूर और आस पास की

कहते है सब जोड़ियां ऊपर बनाई जाती हैं ,
फिर भी मन मार कर यहां शादियां निभाई जाती हैं
कभी मां बाप की इज्जत के लिए कभी सामाजिक हुज्जत के लिए
कभी छोटे भाई बहनों के लिए कभी अपने बच्चों के लिए|

विडंबना इस समाज की,
सुदूर और आस पास की

लड़कियां ब्याही तो जाती है लड़कों से पर जीती है घर और घृहस्थी के साथ
कोई पूछे खुश हो? तो कहती हैं देखो कितना जेवर है मेरे पास
लड़के भी खूब पैसा कमाते हैं सुंदर सा घर बनाते हैं, बस दिल में इक काश दबा जाते हैं
दिल की गहराई से उन्हें चाहती थीं जो लड़कियां, वो नही बन सकीं उनकी पत्नियां |

विडंबना इस समाज की,
सुदूर और आस पास की

विवाह हीन प्रेम इस देश में पाप है ,किंतु प्रेम विहीन दांपत्य यहां माफ है
विवाह में सब देखा जाता है, कुल गोत्र, कुंडली, मंगली,
बस नहीं देखा जाता है तो उनके आपसी प्रेम को
दिल मिले ना मिले ,मिलाते है केवल सरनेम को|

तन पे हल्दी लग जाती है मन कोरा ही रह जाता है
देह से देह का होता मिलन है,
रूह से रूह का जुड़ता ना कोई नाता है|

विडंबना इस समाज की
सुदूर और आस पास की

— प्रज्ञा पांडेय मनु

प्रज्ञा पांडे

वापी़, गुजरात

Leave a Reply