/ कल्पना के संसार में…. /
सीख नहीं पाया अब तक मैंने
शब्दों को जाल में फंसाकर
बाजार की दुनिया में ले आना
एक संवेदना है मेरे अंदर
सत्य – तथ्य की खोज है-
अनुभव का सार है कि यहां
मनुष्य अपने आपको बेचता है
सबसे बड़ी कला है यह जीने का
जाति – धर्म के आवरण में
अपना असला रूप खोलना
दूसरे के जीने का अधिकार छीनना
अधिकार की लालच में
अपना का रंग बदला
भ्रष्टाचार के झूले में मस्त झूलना
सुख – भोग के दौड़ में
एक दूसरे को भूल जाना
यहां न मां – बाप की चिंता है
और न भाई – बंधुजनों की
समाज के हित की बात नहीं
भविष्य के धृवतारे पर निगाह रखकर
साथ – साथ चलना नहीं
सच्चाई झूठ – धोखे के नीचे दब गयी
स्वार्थ मनुष्य को निगला है,
चलता है समाज मनुष्य के बगैर
कहानी तो बहुत पुरानी है यह
दोहराते हम आगे के निकल जाते हैं
ममता – समता, बंधुता की कल्पना में
जिंदगी काट देते हैं ।
— पैड़ाला रवींद्र नाथ।